________________
दिल्ली के निकटस्थ गाजियाबाद में बाल ब्र. श्री कौशल जी के निर्देशन में श्री ऋषभांचल योग ध्यान केन्द्र संचालित हो रहा है, वहाँ श्री प्रकाश जैन द्वारा रचित आदीश अर्चना में "नम: सिद्धम्, नम: सिद्धम्, नम: सिद्धम्" तीन बार उल्लेख किया गया है।१३६
आचार्य श्री जिन तारण स्वामी कृत ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ की ब्र. श्री शीतल प्रसाद जी द्वारा की गई टीका का प्रकाशन सागर से हुआ है, इस ग्रंथ में ग्रंथ के शुभारंभ के प्रथम पृष्ठ पर 'ॐ नम: सिद्धम् मंत्र दिया गया है। इस मंगलमय मंत्र की महिमा ग्रंथ शुभारंभ के पूर्व हुई है। ग्रंथ में पृष्ठ ३३२-३३४ पर तो 'ॐ नमः सिद्धम्' की विस्तृत व्याख्या की गई है। १३७
प्राचीनकाल में पट्टी हो या शिलापट्ट हो इन पर ॐ नम: सिद्धम् या ॐ नमः सिद्धेभ्य: कहना और लिखना मंगलकारक माना जाता था।
"भारतीयों का लिपिज्ञान" नामक लेख साहित्याचार्य मग द्वारा लिखा गया है, उनने यहाँ तक कहा है कि ब्राह्मी लिपि में जो भी शिलालेख लिखा गया, प्राय: उसका प्रारंभ 'ॐ नम: सिद्धम्' से ही किया गया। १३८
अर्थ- जिन्होंने अपने आत्म दोषों को, अपने समाधि तेज से कठोरता पूर्वक भस्म कर दिया। तत्त्व अभिलाषी जीवों को तत्त्व ज्ञान का उपदेश दिया और अमृतेश्वर होकर ब्रह्म पद पर आरूढ़ हो गये। १३९
कैसे वे सिद्ध परमात्मा ? जिन्होंने अपने आत्म स्वरूप मे लीन होकर घातिया और अघातिया समस्त कर्म मल को धो दिया है। जैसे सोलहवान का शुद्ध स्वर्ण अंतिम बार की आँच पर पकाया हुआ निष्पन्न होता है, इसी प्रकार अपनी स्वच्छत्व शक्ति से जिनका स्वरूप पूर्ण दैदीप्यमान प्रगट हुआ है। इसी प्रकार आत्म ध्यान रूपी अग्नि में जिन्होंने समस्त कर्म आदि अशुद्धि का नाश करके आत्मा की पूर्ण शुद्धता को प्रगट कर लिया है वे सिद्ध परमात्मा हैं।
एक-एक सिद्ध की अवगाहना में अनंत सिद्ध अलग-अलग अपनी सत्ता सहित स्थित हैं, कोई भी सिद्ध परमात्मा एक दूसरे में मिलते नहीं हैं। वे परम पवित्र हैं तथा स्वयं सिद्ध हैं और अपने आत्मीक स्वभाव में लीन हैं। वे प्रभु अतीन्द्रिय अनुपम, बाधा रहित निराकुलित स्वरस को अखंड रूप से पीते हैं, उसमें अंतर नहीं पड़ता।
असंख्यात प्रदेशी चैतन्य धातुमय विज्ञान घन स्वरूप को वे परमात्मा धारण करते हैं। अपने ज्ञायक स्वभाव को जिन्होंने प्रगट किया है तथा समय-समय षट् प्रकार हानि वृद्धि रूप अनंत अगुरुलघु रूप परिणमन करते हैं। अनंतानंत आत्मीक सुख को आचरते हैं तथा अंतर में निर्विकल्प आनंद रस का आस्वादन करते हुए अत्यंत तृप्त होते हैं। अब इन्हें कुछ भी इच्छा नहीं रही क्योंकि मोहनीय कर्म का उन्होंने सर्वथा अभाव कर दिया है। जो कार्य करना था उसे कर चुके हैं, इस प्रकार वे कृत-कृत्य हैं।
ज्ञानामृत से जिनका स्वभाव झरता अर्थात् द्रवित होता है और स्वसंवेदन से जिसमें परम आनंद की धारायें उछलती रहती हैं तथा अपने स्वभाव में लीन होती हैं अथवा यह कहें कि जैसे शकर की डली जल में गल जाती है, उसी प्रकार सिद्ध परमात्मा का उपयोग अपने स्वभाव में पूर्णतया तन्मय अभेद हो गया है। उनकी निज परिणति स्वभाव में रमण कर रही है। उन्होंने पर परिणति से भिन्न अपने ज्ञान स्वभाव में प्रवेश किया है, वर्तमान में वे नित्य ज्ञान परिणति स्वरूप हैं। ज्ञान में और परिणति में कोई भेद नहीं है ऐसा अद्भुत अभेदपना सिद्ध परमात्मा को वर्तता है।
जयतु जय शुद्ध सिद्ध भगवान "ॐ नम: सिद्धम्"मंत्र में जिस सिद्ध को नमस्कार किया गया है अनेकानेक जैन ग्रंथों में उसका वर्णन मिलता है। अपनी भाषा में सिद्ध के बारे में कहा जाए तो सिद्ध वह है जो समस्त कर्मों से मुक्त हो गया है अर्थात् जिसमें राग-द्वेष तिल तुष मात्र भी नहीं बचा है। राग-द्वेष ही भव बीजांकुर है और यही नाना प्रकार के कर्मों को उपार्जित करने में मूल कारण है उसके पूर्णतया समाप्त हो जाने पर जीव आत्मा सिद्ध हो जाता है। आचार्य समंतभद्र महाराज ने लिखा है
स्व दोष मूलं स्व समाधि-तेजसा, निनाय यो निर्दय भस्मसाक्रियाम् । जगाद तत्वं जगतेऽर्थिनेन्जसा, वभूव च ब्रह्म-पदामृतेश्वरः॥
१३६. आदीश अर्चना, प्रकाश जैन, ऋषभांचल ध्यान केन्द्र गाजियाबाद प्रकाशन १३७. न्यान समुच्चय सार आचार्य तारण स्वामी, ब्र.शीतल प्रसाद जी कृत टीका
श्री तारण तरण चैत्यालय ट्रस्ट कमेटी सागर प्रकाशन १९९६ तृ. सं. १३८. गंगापुरातत्वांक, महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन संपादित, १६३३, पृ.१६५
१३९. स्वयंभू स्तोत्र, आचार्य समन्तभद्र, १/४
९७