Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 35
________________ • आचारवान लोगों को बनाना है जो शरीर और मन से बलवान हो और जिनकी श्रद्धा दृढ़ हो । १६ डाक्टर विमलाचरण ने अपने ग्रंथ "India as described in early texts of budhism and Jainism" में अनुयोग द्वार सूत्र के माध्यम से लिखा है कि शिक्षा वह है जो छात्र को लौकिक और लोकोत्तर दोनों में निष्णात बनाये वही शिक्षा वास्तविक शिक्षा है। १७ अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज आत्मनिष्ठ साधक थे। श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज द्वारा रचित चौदह ग्रंथों में से उन्होंने श्री मालारोहण, पंडित पूजा, कमल बत्तीसी, तारण तरण श्रावकाचार, त्रिभंगीसार और उपदेश शुद्ध सार ग्रंथ की टीकाएं कीं हैं। उनसे ॐ नमः सिद्धम् मंत्र के सम्बन्ध में चर्चा हुई थी उस समय पूज्य महाराज जी ने कहा था कि ॐ नमः सिद्धम् मंत्र आध्यात्मिक मंत्र है। पूज्य श्री ने बताया कि ॐ नमः सिद्धम् मंत्र अपने सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का बोध कराने वाला मंत्र है। इस मंत्र का प्राचीनकाल से ही साधना-आराधना और शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम प्रभाव रहा है। आज से लगभग ५०-६० वर्ष पहले तक विद्यालयों में 'ओनामासीधम' पढ़ाया जाता था, यह ॐ नमः सिद्धम् का ही विकृत रूप है। इसी संदर्भ में अध्यात्म योगी पूज्य क्षुल्लक मनोहर जी वर्णी सहजानंद महाराज ने प्रवचन में कहा था- "ॐ नमः सिद्धम् बहुत प्राचीन मंत्र है और इससे भी आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अति प्राचीन काल में व तब ही नहीं, किन्तु अब से करीब ५० वर्ष पहले जब अध्यापक लोग विद्यार्थियों को अध्ययन प्रारंभ कराते थे तब छोटे-छोटे बालकों को सबसे पहले ॐ नमः सिद्धम् पढ़ाते थे । यह मंत्र वे लिख नहीं सकते थे, किन्तु मुख से कहलवाने की परिपाटी थी और थोड़े ही अक्षर सीखने के बाद सबसे पहले ॐ नमः सिद्धम् लिखना सिखाते थे । " डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने "प्राचीन भारत में शिक्षा" नामक ग्रंथ में लिखा है कि बालक का विद्यारम्भ ॐ नमः सिद्धम् से होता था। बालक किसी जाति १६. कला और संस्कृति सन् १९५२ इलाहाबाद प्रकाशन पृ. १९९. 17. Dr. Vimla Charan India as described in early texts of Budhism and Jainism Law. p. 287. १८. पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज से चर्चा में प्राप्त सन् १९९१-९२. १९. सिद्ध भक्ति प्रवचन, पू. क्षु. सहजानंद जी वर्णा, श्री सहजानंद शास्त्र माला मेरठ प्रकाशन सन् १९७६- पृष्ठ ४-५ ४८ अथवा सम्प्रदाय का हो, अक्षरारम्भ के प्रारंभ में ॐ नमः सिद्धम् कहना ही होता था, इससे बालक का लिखने पढ़ने में मंगल होगा, ऐसी सार्वभौम मान्यता थी । डॉ. अनन्त सदाशिव अलतेकर ने एक लेख में लिखा है कि शिक्षा के प्रारंभ में बालक को ॐ नमः सिद्धम् कहना होता था। इस शिक्षा के संबंध में डॉ. अलतेकर "प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति' में लिखते हैं कि जैन साहित्य से प्रमाणित है। कि प्राचीन भारत में शिक्षा अंतर्ज्योति और शांति का स्रोत मानी जाती थी, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों के संतुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती तथा उसे श्रेष्ठ बनाती है। इस प्रकार शिक्षा हमें इस योग्य बनाती है कि हम समाज में एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें। यह अप्रत्यक्ष रूप से हमें इहलोक और परलोक दोनों में आत्मिक विकास में सहायता देती है । २० - सद्गुरु से ही वह विद्या और वह ज्ञान प्राप्त होता है जिससे शिष्य अध्यात्म की ओर अग्रसर होता हुआ अपने कल्याण में अग्रसर होता जाता है । महाकवि भर्तृहरि ने विद्या की विशेषता बताते हुए बहुत स्पष्ट लिखा हैविद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम् ॥ -नीति शतकम् विद्या से विनय, विनय से सत्पात्रता, सत्पात्रता से धन, और अंत में धर्म और धर्म से सुख तथा आत्मा की चरम उपलब्धि अर्थात् मुक्ति का सुख प्राप्त होता है। ज्ञानहीन मानव पशु के समान है, वह शव है। ज्ञान से ही शव में शिवत्व अर्थात् चैतन्य और स्व-पर कल्याण के भाव जाग्रत होते हैं। प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ एवं इतिहास वेत्ता डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने "प्राचीन और मध्यकालीन भारत में जैन शिक्षा' में लिखा है- एक दिलचस्प बात यह है कि प्राय: दक्षिण भारत में और उत्तरी भारत के भी प्रदेशों में पुराने ढंग की पाठशालाओं में चाहे मुंडी हिन्दी या महाजनी की हों अथवा संस्कृत या हिन्दी की हों या गुजराती, मराठी, कन्नड़ आदि की हों, बालक का विद्यारम्भ ॐ नमः सिद्धम् से ही कराया जाता था, जिसका विकृत रूप अनेक स्थानों पर "ओ ना मासी धम्' बन गया है। यह पूर्णतया जैन मंगल वाक्य है। इस वाक्य का प्रयोग • सिद्ध करता है कि देश के बहुभाग में सुदीर्घ काल तक लोक शिक्षा जैनों के हाथ में रही । २१ २०. प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, डॉ. अनन्त सदाशिव अलतेकर १९५५ पृष्ठ ६ ४९

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