Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 42
________________ इन सभी प्रसंगों के अलावा 'ॐ नम: सिद्धम्' के संदर्भ में एक अत्यंत गया। इस मंगल सूत्र में व्याकरण की दृष्टि से यह विचारणीय है कि 'ॐ नमः महत्वपूर्ण विचारणीय प्रसंग है, वह यह कि संस्कृत के 'नमः' शब्द के साथ । सिद्धम्' में 'सिद्धम्' पद द्वितीयांत है, जबकि पाणिनीय व्याकरण के सूत्र "नमः चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है और इस मंत्र में द्वितीया एकवचन है, इसका स्वस्ति स्वाहा स्वधाडलं वपद्योगाच्च" (२/३/१६) एवं कातंत्र सूत्र नमः क्या कारण है अथवा यहां नम: शब्द के साथ चतुर्थी विभक्ति होना चाहिए थी? स्वस्ति स्वाहा स्वधाऽलं वषट्योगे चतुर्थी (४०२)" के अनुसार नम: पद के ____ सबसे पहली बात तो यह है कि उपरोक्त विभिन्न व्याकरण ग्रंथों में 'ॐ योग में चतुर्थी होना चाहिये द्वितीया नहीं। यहाँ सिद्धं पद अशुद्ध प्रतीत होता है, नम: सिद्धम्' के प्रसंगों का अवलोकन हम कर चुके हैं। दूसरी बात यह है कि इस जबकि अशुद्ध है नहीं। मंत्र में द्वितीया हो या कि चतुर्थी विभक्ति यह अवश्य ही चिंतन-मनन का विषय इसका समाधान निम्न प्रकार से होता है- "उपपद विभक्तेः कारक है। इस संबंध में आदरणीय गोस्वामी जानकी प्रसाद जी शास्त्री बीना से जो चर्चा विभक्तिः बलीयसी" इस परिभाषा के अनुसार 'नमः सिद्धम्' में कारक हुई थी, वह इस जिज्ञासा का पूर्ण समाधान करने में सक्षम है। श्री शास्त्री जी विभक्ति बलवान होने से दितीया विभक्ति ही समीचीन है। व्याकरणाचार्य हैं और संस्कृत के विशिष्ट ज्ञाता हैं, उन्होंने अनेक साधु संघ के उपपद विभक्ति का लक्षण-'पदमुदिदश्य विधीयमाना विभक्ति: उपपद लोगों को तथा विद्यार्थियों को व्याकरण का ज्ञान नि:स्वार्थ भाव से प्रदान किया विभक्तिः "। है। बीना (जिला-सागर, म.प्र.) में सन् १९८० से ८२ के मध्य मुझे भी गुरु जी कारक विभक्ति का लक्षण- "क्रिया जनकार्थ विभक्ति: कारक से संस्कृत व्याकरण पढ़ने का शुभयोग प्राप्त हुआ था। सकल तारण तरण जैन विभक्तिः "1. समाज बीना का मेरे अध्ययन में पूर्ण सहयोग और बहुत उत्साह रहा। जहाँ नमः पद को उद्देश्य करके विभक्ति का प्रयोग होगा, वहाँ उपपद १९९३ में बीना में ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र के संबंध में द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होगी, उपपद विभक्ति में चतुर्थी विभक्ति होगी किन्तु जहाँ कारक को विभक्ति के संदर्भ में चर्चा प्रारंभ हुई थी और काफी शोध मंथन के पश्चात् श्री। लक्ष्य करके क्रिया जनक अर्थ में विभक्ति होगी, वह कारक विभक्ति होगी। यहाँ शास्त्री जी ने जो व्याकरण का सार मुझे दिया वह इस प्रकार है 'सिद्धम्' को लक्ष्य करके क्रिया जनक अर्थ में नम: का प्रयोग किया गया है। "ॐनमः सिद्धम्" अत्र नमः शब्दो निपातो घोतकः । उक्तो नमः अतएव यहाँ कारक विभक्ति है, इसलिये उपपद विभक्ति से कारक विभक्ति के पदार्थोऽत्रधातो रेवार्थ:। स्व विषय विषयावधित्व समानाधिकरण समवाय लिये सूत्र है "कर्मणि द्वितीया" कर्म में द्वितीया होती है। यहाँ सिद्ध पद कर्म है, रूपेण फलतावच्छेदक सम्बधेन स्व निष्ठापकत्वज्ञान बोधरूप क्रिया नम: है, कर्ता अदृश्य है, और भी यहाँ पर सिद्धम पद "जहत्स्वार्थ वृत्ति" फलाश्रयतया सिद्ध पदस्य कर्मत्वम् । स्व विषयेत्यत्र स्व शब्देनापकृहत्वज्ञान परिभाषा के अनुसार नमः पद अपने पद का त्याग करता है, अर्थ है "कर शिरः बोध रूपं फलम्। संयोगादिरूपः नमः" पद का अर्थ है जो नम: सिद्धं वाक्य में अपने अर्थ को "सिद्धेभ्य: नमः" अत्र अपहत्वज्ञान बोधानुकलो व्यापारो नमः त्यागता है। पदार्थः । तत्रापकर्षः प्रयोक्त पुरुष विशेष निठो नमस्कार्यावधिक एव नमः सिद्धेभ्यः यहाँ पर कर शिरः संयोगादि रूप अर्थ का ग्रहण होने से प्रतीयते, व्यापारश्च कर शिरः संयोगादि ईश शब्द प्रयोग रूपः प्रयोल चतुर्थी विभक्ति उचित है। प्रमाण रूप में यह परिभाषा दृष्टव्य है "अर्थ पद ग्रहणे निष्ठा प्रतीयते शब्द शक्ति स्वभावात् । चतुर्थ्यर्थ उद्देश्यत्वम् । एवञ्च सिद्ध नानार्थकस्य ग्रहणं"इस सूत्र के अनुसार अर्थवान पद ग्रहण करने पर "अजहत पदोद्देश्यको सिद्धावधि कायकृष्टत्व प्रकारकज्ञान बोधानुकूलो व्यापार: स्वार्थ वृत्ति "के कारण नम: सिद्धेभ्य: कहना उचित होगा। इसका अर्थ होगा इति बोधः । एषः अर्थः नमः सिद्धेभ्य: इत्यादी त्याग: एवं नमः शब्दार्थः । कि सिद्धों को अपने अनुकूल करने के लिए हाथों की अंजुलि बनाकर शिर से त्यागश्च स्व स्वत्व निवृत्यनुकूल: व्यापारः। प्रणाम करना। इसका विशेष सार इस प्रकार है-"प्राचीन शिक्षा तंत्र में वर्ण समाम्नाय के शिक्षण में प्रथम 'ॐ नम: सिद्धम्' इस मंगल सूत्र का बालकों को उच्चारण ५०. ॐ नम: सिद्धम् की प्रामाणिकता: व्याकरणाचार्य जानकी प्रसाद जी शास्त्री कराया जाता था। जो कालान्तर में 'ओ ना मा सीध म' के रूप में रूपान्तरित हो बीना जन १९९६ ६२

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