Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 18
________________ ॐ नम: सिद्धं व्यवहार से सच्चे देव - अरिहंत और सिद्ध परमात्मा। निश्चय से सच्चा देव - निज शुद्धात्मा। अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, वीर्यत्व, अव्याबाधत्व सिद्ध के आठ गुणों को आठों पत्रों पर स्थित करके कर्णिका पर स्थित ॐ नम: सिद्धम् मंत्र के चिन्तन पूर्वक सिद्ध परमात्मा के समान अपने सिद्ध स्वरूप का स्मरण ध्यान करना मानस जप है। जैसे सिद्ध परमात्मा अजर-अमर अविनाशी निराकार, सिद्ध शुद्ध हैं, वैसे ही अपने स्वभाव से मैं आत्मा अजर-अमर अविनाशी, निराकार सिद्ध शुद्ध हूं। सिद्ध भगवान के समान अपने सिद्ध स्वरूप शुद्धात्मा चित्स्वभाव का अनुभव करना ही ॐ नम: सिद्धम् का सार तत्त्व है। इसी मंत्र के प्रभाव से पापी जीव शुद्ध होते हैं, इसी मंत्र के प्रभाव से बुद्धिमान मनुष्य संसार के दु:खों से छुटकारा पाते हैं। इसके ध्यान से सांसारिक दुःखों से छुटकारा मिलता है। इस मंत्र के निरंतर अभ्यास करने से मन को वश में रखने वाला साधु संसार बंधन शीघ्र ही काट डालता है। यह मंत्र द्वादशांग वाणी का सार है, संसार के समस्त क्लेशों का नाश करने वाला और मोक्ष सुख को देने वाला सिद्ध परमात्मा का स्वरूप भव परंपरा से चले आ रहे ज्ञानावरणादि आठों कर्मों को जो भव्य जीव तीव्र ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा पूर्ण रूपेण जला डालते हैं और सादि अनंत काल तक के लिए अपने शुद्ध स्वरूप में लीन हो जाते हैं, पूर्ण शुद्ध कर्म रहित हो जाते हैं, उन्हें सिद्ध परमात्मा कहते हैं। यह सिद्ध भगवान पुन: संसार में नहीं आते, जन्म-मरण और संसार की आवागमन की परंपरा से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं। संसार वृक्ष और मुक्ति संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, शरीर में आत्मबुद्धि होना उसका अंकुर है, इस वृक्ष में रागरूपी पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर तना है, प्राण शाखाएं हैं, इन्द्रियां उपशाखाएं हैं,विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मो से उत्पन्न हुआ दु:ख फल है तथा जीव रूपी पक्षी इनका भोक्ता है। अज्ञान मोह से संसार की वृद्धि होती है। सम्यकदर्शन,सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के पालन करने पर ही जीव इस संसार रूपी वृक्ष के कर्मफलों के भोग से मुक्त होता अरिहंत से सिद्ध कैसे होते हैं? जो जीव गृहस्थ अवस्था को त्यागकर मुनिधर्म साधन द्वारा चार घातिया कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय) का नाशकर अनंत चतुष्टय प्रगट करके अरिहंत परमात्मा हो जाते हैं, वे निरीह भाव से सर्वत्र बिहार करके जीवों को कल्याण मार्ग का उपदेश देते हैं। उनके साथ नाम, आयु, गोत्र और वेदनीय चार अघातिया कर्मों का संयोग रहता है, कुछ काल पश्चात् उनको भी क्षय कर,परम औदारिक शरीर को छोडकर ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्र भाग में विराजमान हो जाते हैं वे सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। प्रश्न -यदि बाकी बचे चारों अघातिया कमों की स्थिति समान हो तो चारों कों का क्षय एक साथ हो सकता है; किन्तु यदि उनकी स्थिति विषम हुई तो चारों का क्षय एक साथ कैसे हो सकता है ? अर्थात् यदि आयु कर्म की स्थिति थोड़ी हुई और शेष तीन कमों की स्थिति अधिक हुई तो आयु कर्म पहले क्षय हो जाएगा । उस स्थिति में शेष तीन कर्म (नाम,गोत्र, वेदनीय) बाकी रह जायेंगे तब वह सिद्ध मुक्त परमात्मा कैसे कहलायेंगे? समाधान -जिस अरिहंत परमात्मा के चारों कर्म की स्थिति समान होती है वह तो बिना समुद्घात किये ही चारों कर्मों को एक साथ क्षय करके सिद्ध हो जाते हैं। जैसा कि आचार्य शिवकोटि महाराज ने भगवती आराधना में कहा १४

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