Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 15
________________ तो कहना ही क्या है ? अत: चमत्कार प्रिय भोले भव्य जीवों को चमत्कारों के चक्कर में पड़कर पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए और जैन मंत्र विद्या की आध्यात्मिक यथार्थता से परिचित कराने के लिए आचार्यों को इस ओर अपना उपयोग लगाना पड़ा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है, किंतु यह स्पष्ट है कि वीतरागी संतों आचार्यों का इस विद्या के प्रति लौकिक ख्याति आदि की अपेक्षा आदर भाव कभी नहीं रहा। उन्होंने इसका उपयोग जिन शासन की रक्षा प्रभावना और जीवों को सन्मार्ग में लगाने के लिए ही किया जो पूर्णत: नि:स्वार्थ धर्म प्रेम को व्यक्त करता है। ज्ञानी आचार्य सत्पुरुषों का मंत्र विद्या के प्रति कोई लौकिक आकर्षण न होने का कारण है कि जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य मोक्ष है और मोक्ष का अभिलाषी मुमुक्षु योगी ज्ञानी साधक एक मात्र निज शुद्धात्म स्वरूप की इष्टता पूर्वक मोक्षमार्ग में प्रीति पूर्वक गमन करता है । व्यवहार में वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी परमात्मा सच्चे देव की भक्ति आराधना करता है। वह रागी-द्वेषी देवताओं की उपासना और मिथ्याभाव से पूर्ण आडंबर और प्रपंचों में कभी नहीं पड़ता। यदि ऐसा करे तो वह मोक्षाभिलाषी ही नहीं है। वीतरागता ही धर्म है। आत्मकल्याण के मार्ग में वीतरागी होने के लक्ष्य से ही साधना आराधना की जाती है। राग के लक्ष्य या राग की पूर्ति के लक्ष्य से कोई भी वीतरागी नहीं हो सकता। यह साधना का मार्ग अत्यंत सूक्ष्म है। वीतरागता का साधक रागरूप किसी भी प्रपंच में नहीं पड़ता क्योंकि यह उसका लक्ष्य नहीं है। उसका लक्ष्य तो वीतरागी ज्ञानी और मुक्त होने का है। मोक्ष की प्राप्ति की अंतर्भावना से आत्म साधना करते हुए यदि अनायास उसे कोई ऋद्धि सिद्धि प्राप्त भी हो जावे तो भी वह उस ओर दृष्टि नहीं देता। वह उस ओर से उदासीन होकर अपने लक्ष्य की ओर ही दृष्टि रखता है, भूलकर भी उसकी ओर आकृष्ट नहीं होता, क्योंकि यह लौकिक ऋद्धि सिद्धियाँ मोक्ष की साधक नहीं होती हैं। जब हस्तिनापुर में राजा पद्म से राज्य लेकर राजा बलि ने अकम्पनाचार्य महाराज और उनके संघ के सात सौ मुनियों पर उपसर्ग किया वह श्रावण सुदी पूर्णमासी का दिन था,इससे आकाश में श्रवण नक्षत्र का उदय हुआ था। साधुओं के साथ ऐसा अन्याय होने से वह नक्षत्र भी कांपने लगा। उसे कांपता देखकर । मिथिलापुरी में भ्राजिष्णु क्षुल्लक ने ज्योतिष विद्या से जाना कि कहीं मुनियों पर उपसर्ग हो रहा है और उन्होंने यह बात अपने गुरु विष्णुसूरी से कही, उन्होंने अपने ज्ञानबल से जानकर कहा कि अकम्पनाचार्य के संघ पर बलिराजा ने बड़ा उपद्रव किया है तब पुष्पदंत विद्याधर को बुलाकर कहा कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णु कुमार मुनि धरणी भूषण पर्वत पर साधनारत हैं उनसे जाकर कहो कि इस उपसर्ग का निवारण करें। पुष्पदंत तुरंत ही उनके पास गया और सब कह सुनाया। उन विष्णुकुमार मुनि को यह मालूम ही न था कि मुझे विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है। उन्होंने उसकी परीक्षा की और हस्तिनापुर जाकर मुनि संघ के उपसर्ग को दूर किया। ज्ञानी वीतरागी संत साधकों को ऋद्धि सिद्धि की अपेक्षा नहीं होती, जब कि साधना के प्रभाव से वे उनके चरणों में लोटती हैं फिर भी उन्हें उनसे प्रयोजन नहीं रहता। विष्णुकुमार मुनिराज को विक्रिया ऋद्धि सिद्धि हो गई और उन्हें उसका पता ही नहीं हुआ, जब विद्याधर के बताने पर उन्होंने हाथ बढ़ाकर देखा तब निश्चय हुआ। भर्तृहरि और शुभचंद्राचार्य महाराज का उदाहरण भी आता है कि भर्तृहरि स्वर्ण रस की सिद्धि कर जब शुभचंद्राचार्य महाराज के पास गये, उन्हें दिगम्बर दशा में देखकर भर्तृहरि जी दुखित हुए और स्वर्ण रस दिया,शुभचंद्राचार्य महाराज ने कहा- यदि सोना चांदी बनाना और इसको ही प्राप्त करना था तो राज्य में क्या कमी थी? साधना तो आत्मा को स्वर्ण सम शुद्ध बनाने के लिए की जाती है ऐसा कहकर भर्तृहरि को समझाया किंतु भर्तृहरि ने पूछा कि मैंने तो स्वर्ण रस की सिद्धि प्राप्त कर ली, आपने क्या किया? शुभचंद्राचार्य महाराज ने सहज भाव से पैर तले की धूल चुटकी भर उठाकर चट्टान पर डाली और वह चट्टान सोने की हो गई। भर्तहरि, शुभचंद्राचार्य महाराज के वीतराग भाव की महिमा देखकर क्षमा याचना करने लगे। अभिप्राय यह है कि साधना से ज्ञानी योगीजनों को अनेक प्रकार की सिद्धियां प्रगट भी हो जावें तो भी उन्हें कोई अपेक्षा और सांसारिक ख्याति लाभ का कोई प्रयोजन नहीं होता। उनका लक्ष्य एक मात्र संसार से मुक्त होने का, अविनाशी परमानन्दमयी मुक्ति पद प्राप्त करने का रहता है। ज्ञानी जानता है कि इस तरफ बाहर की ओर देखूगा तो मैं अपने लक्ष्य से च्युत हो जाऊंगा अत: वह झूठे सभी प्रलोभनों से बचता है। वह किसी की परवाह किए बिना अपने मार्ग में आगे बढ़ता चला जाता है और अंत में सिद्धि को प्राप्त करता है, जिसे प्राप्त करके फिर कुछ भी प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं रहती। जैन धर्म में एक साधु की तो बात ही क्या, एक सच्चे ज्ञानी आत्मार्थी की दृष्टि में भी लौकिक ऋद्धि-सिद्धियों का कोई महत्त्व नहीं रहता वह भी उनकी कोई परवाह नहीं करता।

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