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भावार्थ — जे परापवाद बोलवामां मुंगो छे, परस्त्रीने जोवामां जे अंध समान छे अने परद्रव्यनुं हरण करवामां जे पांगलो छे-ते पुरुष त्रणे लोकमां जयवंत रहो. ४६
मा भूत्सज्जनयोगो यदि योगो मा पुनः स्नेहः । यदि स्नेहो विरहो मा यदि विरहो जीविताशा का
भावार्थ - सज्जन पुरुषनो योग कदापि न थजो, कदाच योग थाय तो त्यां स्नेह न थशो, वळी स्नेह थाय, तो तेनो विरह म थजो अने जो विरह थयो, तो पछी जीवितनी आशा केवी ? ४७
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयतः । परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसंतः संति संतः कियंतः ॥ ४८ ॥ भावार्थ - मन, वचन अने काया ए त्रणे योगमां जे पुण्यरूप अमृतथी परिपूर्ण छे, उपकारोनी श्रेणिथी जे त्रणे भुवनने प्रसन्न करे छे अने परना परमाणुमात्र गुणने पर्वत समान गणीने जे निरंतर पोताना अंत