Book Title: Niti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Author(s): Ravichandra Maharaj
Publisher: Ravji Khetsi
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(४८७ )
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सज्जन चित्तमां नवि धरे दुर्जन जनको बोल ॥ मारतां पत्थर अंबने तो फल दीये अमूल ॥ ३९ ॥ संपथी संपद संपजे संपे जाय किलेश || ज्यां नही संपसदागम त्यां नहि सुख लव लेश ॥४०॥ स्त्री पियर नर साशरे संजमीयां सहवास ॥ एता हुवे अलखामना जो मंडे स्थिर वास ॥ ४१ ॥ स्त्री प्राय कहेवाय छे कजीआनी करनार ॥ चार मले जो चोटला भांगे जन घरबार ॥ ४२ ॥ श्रवण नयन मुखनाशिका सहुने एकज ठाय ॥ कृत्याकृत्य जुओ सर्वना जुदा आठहि जाम ॥ ४३ ॥ सर्वनुं हेत अहेत ते नेत्रथकी परखाय ॥ भलं. मुंडुं आरसी वडे जेम जरुर जणाय ॥ ४४ ॥ समय समय बलवान है नहिज पुरुष बलवान ॥ काबे गोपी लुंटीया ए अर्जुन ए बान ॥ ४५ ॥ स्ववस रंकपणुं भलुं नही परवस रंगरोल ॥ वर पोतानी पातली नहि परनुं घृत गोल ॥ ४६ ॥ सोबत करतां श्वानकी दो बातोका दुःख ॥ बीज्यों काटे पायुंको रीज्यो चाटे मुख ॥ ४७ ॥ शेठ तणा शाला थवा नकी सहु हरखाय ॥ कोई गरीब जो कहे कदी जीवडो नीकली जाय ॥४८॥

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