Book Title: Nalvilasnatakam Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri Publisher: Harshpushpamrut Jain GranthmalaPage 63
________________ नलविलासे आमन्त्रिता वयमतः प्रमदः परेऽपि सन्त्यागताः क्षितिभुजोऽथ विषादतापः । अङ्ग विधानमिव सन्धिषु रूपकाणां तुल्यं स्वयंवरविधिः सुख-दुःखहेतुः ॥४॥ कलहंसः-अयं तरुणतरणि-किरणकरणिधारि-चारुप्रवाल-पटलपुलकितानेकशाखाप्रतान-विनिवारितातपप्रचारः सहकारस्तदास्यतामस्यालवालवारिशीकरासारोपगूढारूढ-हरितोपजातपरभागे मूलभागे देवेन । राजा-(तथा कृत्वा) कलहंस ! पश्य सहकारशाखासनीडे नीडे। प्रियतमावदनेन्दुविलोकितै रसुहितः कलकण्ठयुवा नवः । प्रतिमुहुः प्रतिगत्य नभस्तलाद् वलति याति वलत्यथ यात्यथ ॥ ५ ॥ अपि च-- उत्तंसकौतुकनवक्षतदक्षिणाशा शाखाग्रपल्लवलवा सहकारवीथी । सेयं समादिशति नः स्फुटमङ्गनानां सद्यः सलीलगतमश्चितयौवनानाम् ॥ ६॥ कलहंसः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154