Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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नलविलासे
यदद्यापि च्छेत्त न सहसि विदर्भेन्द्रतनयानितम्बस्तम्बाङ्कप्रणयिपरिधानांशुकमिदम् ॥ १३॥
आः! ज्ञातम् , हस्तं सखायमपेक्षते । ( दक्षिणहस्तं प्रसार्य सरोषम् ) त्वया तावत् पाणिः प्रसभमुपगूढः परिणये
त्वमेवास्याः पीनस्तनजघनसौरभ्यसचिवः। ततश्छेत्तुं वासः कृशकृप ! कृपाणं कर ! धरं--
स्त्रुटन्मर्मोत्सङ्गः कथमहह ! नोपैषि विलयम् ? ॥१४॥ अपि च-- देवीनीविच्छिदालोल ! निर्दाक्षिण्यशिरोमणे । सवाच्यः स विरिश्चोऽपि हस्त ! त्वां दक्षिणं सृजन ॥१५॥
(विमृश्य ) यदि वा द्यूतकारस्य न नामाकृत्यमस्ति ते । आः ! गृहाण कृपाणं हुं हुं विधेहि द्विधांशुकम् ॥ १६॥
( अंशुकं द्विधाकृत्य शनैरुत्थाय ) भ्रातश्चूत ! वयस्य केसर ! सखे पुन्नाग ! यामो वयं मा स्मास्माकमनायकार्यपरता जानीत यूयं हृदि । इतेच्छा क च कूबरस्य निषधाभतु : क चायो वैदर्भीत्यजनं क चैष निखिलः कल्पः प्रसादो विधेः ॥१७॥ भवतु, चरमं देवीवदनेन्दुविलोकनं कृत्वा बजामि । (विलोक्य सास्रम् )
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