Book Title: Nalvilasnatakam Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri Publisher: Harshpushpamrut Jain GranthmalaPage 71
________________ ५४ ] नलविलासे दमयन्ती - (भुजमुत्क्षिप्य ) 'मयरिए ! एसो नलो (पुनः सभयमात्मगतम्) मा नाम विलासिणीलोएण दिट्ठम्हि । भोद एवं दाव ( प्रकाशम् ) मयरिए ! एदस्स वि नामं तुम न जाणासि ? णं तिणविसेसो एसो नलो । कपिञ्जला - (विहस्य) सच्चं एसो नलो, न उण तिणविसेसो, किंतु तिणविसेसीकद अवरराजलोओ | दमयन्ती-- कविञ्जले ! तुमं वंकभणियाइं जाणासि । राजा - ( उपसर्प्य) कलहंस ! सखीशङ्काशङ्कुप्रणयपरितापव्यसनिनी त्रिभागाभोगाग्रप्लवन बहलीभूतशितिमा । द्रुमालोकव्याजाद् विषमपरिपाता मम वपुः समं सेयं दृष्टिर्जडयति च संरम्भयति च ॥ १८ ॥ ( विमृस्य ) कुचकलशयोवृ त्तं नृत्तं भ्रवमृदुता गिरी शि तरलता वक्त्रे कान्तिस्तनौ तनिमा तथा । १. मकरिके ! एष नलः ? मा नाम विलासिनीलोकेन दृष्टास्मि । भवतु एवं तावत् । मकरिके ! एतस्यापि नाम त्वं न जानासि ? ननु तृणविशेष एष नलः । २. सत्यमेषो नलः, न पुनस्तृणविशेषः, किन्तु तृणविशेषीकृतापर राजलोकः । ३. कपिञ्जले ! त्वं वक्रभणितानि जानासि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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