Book Title: Nalvilasnatakam Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri Publisher: Harshpushpamrut Jain GranthmalaPage 88
________________ चतुर्थोऽङ्कः [७१ कपिञ्जला--(अपवार्य नलं दर्शयन्ती ) 'एसो उण कुसुमावचयपच्चूहकारी दुब्बिसहआधि-वाधिनाडयपत्थावणासु तहारो सजणो दमयन्ती-(समन्ततोऽवलोक्य, नलं च सविशेषं निवण्ये स्वगतम् ) कधं अवल्लेव गोदमस्स सावेण एदस्स दसणेण जडीकदा मे ऊरुजुयली! हीमाणहे ! कधं सयंवरमंडवे परिकमिस्सं ? कपिञ्जला-(स्वगतम्) अम्मो! कधं भट्टिणीए नलं पिच्छिउण ऊरुत्थंभो जादो ? भोदु एवं दाव (प्रकाशम्) भट्टिणि ! रयणिसंभूददाहजरेण नीसहाई दे अंगाई, ता में अवलंबिय परिक्कमसु । नल:- (विलोक्य) मकरिके ! केयं कपिञ्जलादत्तहस्तावलम्बा परिक्रामति ? मकरिका- 'णं एसा दमयंती। १. एष पुनः कुसुमावचयप्रत्यूहकारी दुर्विषहाधि-व्याधिनाटक प्रस्तावनासूत्रधारः स्वजनः । २. कथमहल्येव गौतमस्य शापेनैतस्य दर्शनेन जडीकृता मे ऊरुयु गली ! हा ! कथं स्वयंवरमण्डपे परिक्रमिष्यामि ? ३. अहो ! कथं भा नलं दृष्ट्वा ऊरुस्तम्भो जाप्तः ? भवतु, एवं तावत् । भत्रि! रजनीसम्भूतदाहज्वरेण निःसहानि ते अङ्गानि, ततो मामवलम्ब्य परिक्रमस्व । ४. नन्वेषा दमयन्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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