Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 42
________________ द्वितीयोऽङ्कः [ २५ स्वातन्त्र्यं यदि जीवितावधि सुधा स्वभूर्भुवो वैभवं वैदर्भी यदि बद्धयौवनभरा प्रीत्या सरत्याऽपि किम् ॥२॥ राजा - ( सहर्षमात्मगतम्) यदि सयौवनायां विदर्भराजतनयायां रति- प्रीत्योः पुनरुक्तार्थता, तदानीमेव स्थाने नलस्योत्कलिकाकापेयम् | ( पुनर्दिशोऽवलोक्य) कथमास्थानीजनवलकोलाहलेन कर्णयोः सप्रत्यूहो विदर्भराजात्मजालावण्यसौरभवर्णनामृतास्वादः १ ( प्रकाशम् | सरोषत् ) मञ्जीराणी रणन्ति वारयत हुं वाराङ्गनाश्रामर ग्राहिण्यो मणिकङ्कणावलिझ (र) णत्कारं चिरं रक्षत | पूर्ण पञ्चमगीतिरीतिभिरहो ! गन्धर्वलोकाः । कथं वैदर्भीगुणसङ्कथां खरतरै मुष्णीथ पापाः ! स्वरैः ॥ ३ ॥ कलहंसः - अपि च देव ! Off विश्वस्य श्रवणेन्द्रियं सफलतां नेतु पुरा भारती वाचां रूपमुपास्य निर्मितवती वासं विदर्भक्षितौ । बद्धेष्व नरेन्द्रभीमतनयावेषं विधृत्याधुना साफल्यं नयनेन्द्रियं गमयितुं देवी स्मरस्य प्रिया ॥ ४ ॥ विदूषकः - ' ही ही भो कलहंस ! सुठु तए दमयंतीए अंगचंगत्तणं समासेण कहिद, ता सत्थि भवदे भोदु । १. अहो अहो ! भोः कलहंस ! सुष्ठु त्वया दमयन्त्या अङ्गचङ्गत्वं समासेन कथितम् । तत् स्वस्ति भवते भवतु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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