Book Title: Murkhshatakam
Author(s): Hiralal Hansraj Shravak
Publisher: Hiralal Hansraj Shravak
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भत्त
१४॥
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जेटलां दुःखो चार गीतमा रखडता जीवने थाय छे ते सर्वे हिंसाना फल छे एम मुक्ष्म बुद्धिषी जाण ॥ ९४॥
जंकिंचि सुहमुयारं ॥ पहुत्तणं पग सुंदरं जं च ॥
आरुग्गं सोहग्गं ॥ तं तमदिसाफलं सर्व ॥एप॥ जे कर मोटुं सुख अने प्रभुपणुं जे कंइ स्वभाविक रीते सुंदर छ, निरोगपणुं, सौभाग्यपणुं छे ते ते सर्वे अहिंसान फल समजवू ॥ ९५॥
पाणोवि पामिहेरं ।। पत्तो बढोविसंसुमारदहे॥
एगेण वि एग दिण थिएण | हिंसावय गुणणं ॥ए । चंडाल पण मुमुमार द्रहने विषे एक दिवसमा एक जीव बचाववाथी उत्पन्न थएलो अहिंसा व्रतना गुणवडे देवतार्नु सानिध्य पाम्यो ॥ ९६ ।।
परिहर असच वयणं । सर्वपि चनविहं पयत्तेण ॥
संजमवंता वि जननासा दोसेण लिप्पंति ॥ ए॥ असत्य चार प्रकारचें छे तेनां नाम १. अछतानुं प्रगट कर, जेमं आत्मा सर्वगत छ, २. बीजा अर्थन कहे, जेम गो शब्दे श्वान. ३. छताने ओलबवू, जेम आत्मा नथी. ४. निदान करवू, जेम चोर न होय तेने
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॥१४॥

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