Book Title: Murkhshatakam
Author(s): Hiralal Hansraj Shravak
Publisher: Hiralal Hansraj Shravak
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जं मेहुण मायरियं ॥ तं निंदे तंच गरिदामि ॥ २१ ॥
देव संबंधी अथवा मनुष्य संबंधी अथवा तिर्यंच संबंधी सराग हृदयवडे करीने जे मैथुन सेन्युं होय ते डुं निंदुएं अने गरहुं ॥ २१ ॥
जं धरा धन्न सुवन्न ॥ पमुहंमि परिगहे नव विदेवि ॥ विहिन ममत्त जावो ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २२ ॥
धन धा सुवर्ण प्रमुख नव विव परिग्रह (धन, धान्य खेत्र वास्तुक सोनुं रुपुं कुप्य द्विपद चतुष्पद) ने विषे जे ममता मान कीधा होय ते हुं निदुं अने गर ।। २२ ।।
जं राई नोयण विरमलाई | नियमेसु विविह रूवेसु ॥ खलियं मद संजायं ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २३ ॥
रात्रि भोजन बिरमणादि विविध प्रकारना नियमाने विषे मने जे दोप लाग्यो होय ते हुं निदुछु अने गहुं ॥ २३ ॥
बाहिर मनिंतरयं ॥ तवं वालस विहं जिणुद्दिनं ॥
जं सत्तीए न कयं ॥ तं निंदे तं च गरिदामि ॥ २४ ॥
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