Book Title: Murkhshatakam
Author(s): Hiralal Hansraj Shravak
Publisher: Hiralal Hansraj Shravak
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अ०प०
॥ ६३ ॥
सम्म रता । श्रनियाला सुकलेसमो गाढा ॥
A
इइ जे मरंति जीवा ॥ तेतिं सुखदा, नवे बोद्धी ॥ ६१ ॥
था संसारमा सम्यक् दर्शनमां रक्त, नियाणा रहित, शुक्ल लश्याबाळा जे जीवो मरण पामेछे ते जीवो बोधि बीज ( समकित ) मुलम घायले ॥ ४ ॥
जे पुरा गुरु पडिली । बहुमोदा ससबला कुसीलाय ॥ समादियामति ॥ ते हुँति प्रांत संसारि ॥ ४२ ॥
जेओ बळी गुरुना शत्रुभूत, घणा मोहवाळा, दुषण सहित, कुशील अने असमाधिए मरण पामेछे तेथो अनंत संसारी थायछे ॥ ४२ ॥
जिवयले प्ररत्ता ॥ गुरुवयणं जे करंति जावे ॥
- असबल असं किलि । ते हुति परित संसारि ॥ ४३ ॥
जिन बचनमो रागवाळा, गुरुनुं वचन भाषे करीने शेओ करेछे, दुषण रहित, संक्लेष रहित होयछे, तेओ थोडा संसारवाळा थायछे ॥ ४३ ॥
बाल मरणालि बहुसो || बहुधासि प्रकामगाणि मरणालि ॥ मरिहंति ते वराया ॥ जे जिपरावयां नयांणंति ॥ ४ ॥
पपन्नो.
॥ ६३ ॥

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