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मेरी जीवन गाथा
मार्गमे लग जाओ। मनुष्य जन्मका लाभ अति कठिन है, संयमका साधन इसी पर्यायमे होता है। सब प्रकारकी योग्यता यहाँ है । नारकी तो अनन्त दुःखके ही पात्र हैं। तिर्यञ्चोंमे भी वहुभाग निरन्तर पर्याय बुद्धिमे ही काल पूर्ण करता है। कुछ अन्य तिर्यञ्च संज्ञी पर्यायके पात्र होते हैं। उनमे अधिकांश तो महाहिंसक क्रूर ही जन्म पाते हैं। कुछ सरल-भद्र भी होते हैं। इन दोनों प्रकारके तिर्यञ्चोमें जिनके मन है वे सम्यग्दर्शन और देशसंयमके पात्र हैं परन्तु विरले हैं । देवों मे शुभोपयोगके कार्योंकी मुख्यता है परन्तु कितना ही प्रयत्न करें संयमसे वञ्चित ही रहते हैं। मन्द कषाय हैं, शुक्ललेश्या तक हो सकती है परन्तु वह लेश्या मनुष्य पर्याप्तमें संभवनीय शुक्ललेश्यासे न्यून ही है। मनुष्य जन्ममें संसार नाशका साक्षात्. कारण जो रत्नत्रय है वह हो सकता है । मनुष्य ही महाव्रतका पात्र हो सकता है। ऐसे निर्मल मनुष्य जन्मको पा कर पञ्चेन्द्रियोंके विषयमे लीन हो खो देना बुद्धिका दुरुपयोग है। आप लोग सम्पन्न हैं, नीरोग हैं और साधन अच्छे हैं। यदि इस उत्तम अवसरको पा कर आत्महितसे वञ्चित रहे तो अन्तमे पश्चात्ताप ही रह नावेगा, अतः जहाँ तक वने आत्मतत्त्वकी रक्षा करो। उससे अधिक मैं नहीं जानता। अब हमको जाना है आप लोग आनन्दसे रहिये।।
प्रवचनके बाद बुलन्दशहरसे ४ मील चल कर एक कूप पर विश्रामके अर्थ रह गये और १५ मिनटके अनन्तर वहाँसे प्रस्थान कर २ मीलके उपरान्त एक धर्मशालामे ठहर गये। धर्मशालाके समीप ही एक शिवालय था, उसमे सायंकाल बहुतसे भद्र मनुप्य पाये और सन्ध्या वन्दन कर चले गये। अन्तमें १ महाशयने प्रश्न किया कि संसारमे मनुष्यका क्या कर्त्तव्य है ? यह तो महादुःखका सागर है ? प्रश्नके उत्तरमे मैंने कहा-दुख क्या है? वह महाशय वोले