Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 523
________________ ४८४ मेरी जीवनगाथा है, इसलिये उनकी समाधिके लिये आप सागर पधारनेकी कृपा करें। सिं० कुन्दनलालजी अन्तरङ्ग के निर्मल एवं परोपकारी जीव हैं। उनके संपर्कमें हमारा वहुत समय बीता है, इसलिये मनमें विकल्प उत्पन्न हुआ कि यदि हमारे द्वारा इनके परिणामोका सुधार होता है तो पहुँचनेमे क्या हानि है । तारके वाद ही सागरसे कुछ व्यक्ति भी लेनेके लिए आ गये । जब इस वातका यहाँके समाजको पता चला तो सबमें व्यग्रता फैल गई। लोग यह कहने लगे कि आपकी अत्यन्त वृद्ध अवस्था है इसलिए श्री पार्श्व प्रभुकी शरण छोड़कर अन्यत्र जाना अच्छा नहीं है। साथ ही यह भी कहने लगे कि आपने इसी प्रान्तमें रहनेका नियम किया था इसलिए इस प्रान्तसे बाहर जाना उचित नहीं है। हजारीबाग ही नहीं कई स्थानोंके भाई एकत्रित हो गये । मैं दोनों ओरसे संकोचमे पड़ गया। इधर सागरके महाशय आगये इसलिये उनका संकोच और उधर इस प्रान्तके लोगोका संकोच । हजारीबागसे चलकर ईसरी आये तो यहाँ भी बहुतसे लोगोंका जमाव देखा । वात यही थी, सवका यही कहना था कि आप इस प्रान्तको छोड़कर अन्यत्र न जावें । जानेमे नियमकी अवहेलना होती है परन्तु मेरा कहना था कि समाधिके लिए जानेका विचार है। यदि मेरे द्वारा एक आत्माका सुधार होता है तो क्या बुरा है ? लोगोंकी युक्ति यह थी कि यदि सिंघईजी कोई व्रती क्षुल्लक या मुनि होते तो जाना संभव हो सकता था। अन्तरङ्गमे विचाराका संघर्ष चल रहा था कि सागरसे दूसरा समाचार आ गया कि सिंघईजीका स्वास्थ्य सुधर रहा है। समाचार जानकर हृदयका व्यग्रता कम हुई। मनमें यह लगा कि मेरा हृदय बहुत निवल है। जरा जरा सी बातोंको लेकर उलमनमें पड़ जाता हूँ इसे हृदयका दुर्वलता न कहा जाय तो क्या कहा जाय । स्वस्थताके तारने हमारी उलमान समाप्त कर दी और मैंने सागरवालोंसे कह दिया कि

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