Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 536
________________ वचार कण 415 'धन अधिक संग्रह करना चोरी है, इसलिये कि तुमने अन्यका स्वत्व हरण कर लिया / . 'राग द्वेष घटानेसे घटता है किन्तु उसके प्राक् मोहका नाश करो। मोहके नशामे आत्मा उन्मत्त हो जाता है।' ____ 'यदि शान्ति चाहते हो तो स्थिर चित्त रहो / व्यग्रता ही संसार की दादी है / यदि संसारमे रुलनेकी इच्छा है तो इस दादीके पुत्रसे स्नेह करो। ____ 'यदि परोपकार करनेकी भावना है तो उसके पहले आत्माको पवित्र बनानेका प्रयत्न करो।' परोपकारकी भावना उन्हींके होती है जो मोही हैं। जिनकी सत्तासे मोह चला गया वे परको पर समझते हैं तथा आत्मीय वस्तुमे जो राग है उसे दूर करनेका प्रयास करते हैं।' ____ 'ज्ञानार्जन करना उत्तम है किन्तु ज्ञानार्जनके वाद यदि आत्महितमे दृष्टि न गई तब जैसा धनार्जन वैसा ज्ञानार्जन / ' 'मनुष्य वही है जिसने मानवता पर विश्वास किया / ' 'लोभ पापका वाप है / इसके वशीभूत होकर मनुष्य जो जो अनर्थ करते हैं वह किसीसे गुप्त नहीं।' / ___ 'अपने लक्ष्यसे च्युत होनेवाले मनुष्यके कार्य प्रायः निष्कल रहते हैं।' 'जितना अधिक संग्रह करोगे उतना ही अधिक व्यग्र होगे।' जो सुख चाहत अातमा तज दो अपनी भूल / परके तजनेसे कहीं मिटे न निजकी शूल // जो अानन्द स्वभावमय ज्ञानपूर्ण अविकार / मोहराजके जालमें सहता दु ख अपार //

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