________________
२६२
मेरो जीवन गाथा सम्यग्दर्शनसे नहीं क्योंकि सम्यग्दर्शन तो चारों गतियोंमे होता है। यदि इस ही को प्राप्त कर संतोप धारण किया तो मनुष्य जन्मकी क्या विशेषता हुई ? अतः इससे उत्तम संयम धारण करना ही इस पर्यायकी सफलता है।
आजकल बड़े बड़े विद्वान यह उपदेश देते हैं कि स्वाध्याय करो। यही आत्मकल्याणका मार्ग है। उनसे प्रश्न करना चाहियेहे महानुभाव ! आपने आजन्म विद्याभ्यास किया, सहस्त्रों को उपदेश दिया और स्वाध्याय तो आपका जीवन ही है अतः हम जो चलेंगे सो आपके उपदेश पर चलेंगे परन्तु देखते हैं कि आप स्वयं स्वाध्यायके करनेका कुछ लाभ नहीं लेते अतः हमको तो यही श्रद्धा है-स्वाध्यायसे यही लाभ होगा कि अन्य को उपदेश देनेमे पटु हो जावेंगे सो प्रातः जितनी बातोंका आप उपदेश करते हैं हम भी कर देतेहैं प्रत्युत एक बात आप लोगोंकी अपेक्षा हममे विशेप है। वह यह कि हम अपने बालकोंको यथाशक्ति जैनधर्मके जानपनेके लिये प्रयत्न करते हैं परन्तु आपमे यह बात नहीं देखी जाती। आपके पास चाहे पचास हजार रुपया हो जावें परन्तु आप उसमेसे दान न करेंगे । अन्यकी कथा छोड़िये, आप जिन विद्यालयोंके द्वारा विद्वान् हो गये कभी उनके अर्थ १००) भी नहीं भेजे होंगे । अथवा निजकी बात छोड़ो अन्यसे यह न कहा होगा-भाई ! हम अमुक विद्यालयसे विद्वान् हुए उसकी सहायता करना चाहिये। तथा जगत्को धर्म जाननेका उपदेश देंगे, अपने बालकोको एम. ए. बनाया होगा परन्तु धर्मशिक्षाका मिडिल भी न कराया होगा। अन्यको मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश देते हैं पर आपसे कोई पूछे-अष्ट मूल गुण हैं ? हॅस देवेंगे। व्याख्यान देते-देते पानीका गिलास कई वार ।
आ जावे, कोई बड़ी बात नहीं । हमारे श्रेतागण इसीमे प्रसन्न हैं कि पण्डितजी ने सभाको प्रसन्न कर लिया।