Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 491
________________ -४६० मेरी जीवन गाथा कोई भी अंश अन्यरूप नहीं हुआ । जीव द्रव्य न तो पुद्गल हुआ और न पुद्गल जीव हुआ । केवल सुवर्ण रजतका गलनेसे एक पिण्ड होगया । उस पिण्डमें सुवर्ण रजत अपनी अपनी मात्रा मे उतने ही रहे परन्तु अपनी शुद्ध परिणतिको दोनोंने त्याग दिया एवं जीव और पुद्गल भी बन्धावस्था मे दोनों ही अपने अपने स्वरूपसे अच्युत हो गये ।" ‘ऊपरी चमक दमकसे आभ्यन्तरकी शुद्धि नहीं होती ।' 'आत्म द्रव्य की सफलता इसीमे है कि अपनी परिणतिको परमें न फंसावे । पर अपना होता नहीं और न हो सकता है । संसारमे आजतक ऐसा कोई प्रयोग न बन सका जो परको अपना बना सके और आपको पर बना सके । ' 'स्नेह ही वन्धनका जनक है । यदि संसारमे नहीं फँसना है तो परका संपर्क त्यागना ही भद्र है ।' ‘आत्मामें कल्याण शाक्तिरूपसे विद्यमान है परन्तु हमने उसे औपाधिक भावों द्वारा ढक रक्खा है । यदि ये न हों तो उसके विकास होने में विलम्ब न हो ।' 'आत्मा अनादिकालसे परके साथ सम्बन्ध कर रहा है और उनके उदयकाल मे नाना विकार भावोंका कर्ता बनता है । यही कारण है कि अपने ऊपर इसका अधिकार नहीं ।' 'जो आत्मा परसे ही अपना कल्याण और कल्याण मानता है वह पराधीनताको स्वयं अंगीकार करता है ।" 'समाजमे व आदर विद्वत्ताका नहीं किन्तु वाचालताका गया है ।" 'अन्तरङ्गकी परिणतिको निर्मल करना ही पुरुषार्थ है । जिसने मनुष्य जन्मको पाकर अपनी परिणतिकी मलिनतासे रक्षा न की उसका मनुष्य जन्म यों ही गया ।'

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