Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 478
________________ गयामें चतुर्मासका निश्चय ४५१ आप साढूमलके हैं। आपके पिता वहुत ही सज्जन थे, पण्डित थे, त्यागी थे, बहुत उदार थे और जैनधर्ममे अतिराग रखते थे। आपके भाई शीलचन्द्रजी भी उत्तम विद्वान् हैं। गयासे पं० राजकुमारजी शास्त्री भी आये । आप योग्य व्यक्ति हैं, त्यागी हैं, सरल परिणामी हैं, गयामें अध्ययन कराते हैं तथा समाजको भी स्वाध्याय कराते हैं। आपको करणानुयोगका अच्छा अभ्यास है तथा चरणानुयोगपर विशेप अनुराग है। आज-कल लोगोंने चरणानुयोगका पालन करना अत्यन्त कठिन बना दिया है। मन्दिरमें प्रवचन हुआ। प्रकरण था कि जो इस जीवको संसारके वन्धनमे फंसाते हैं ऐसे कुटुम्बीजन परमार्थसे इसके शत्रु हैं और जो हितका ध्यान रखते हैं ऐसे योगी इसके वन्धु हैं। परन्तु इस जीवकी अनादिकालसे विषय वासनामे ही प्रीति हो रही है इसलिए इसमे सहायक लोगोंको यह मित्र मानता है और जो इसमे बाधक हैं उन्हे शत्रु समझता है। वास्तवमे विचार किया जाय तो यह सव कथन व्यवहारकी मुख्यतासे है। निश्चयसे न तो जीवका कोई शत्रु है और न कोई मित्र है। इसके जो रागादिक परिणाम हैं वही इसके शत्रु हैं और जो वीतरागादि भाव हैं वही हमारे मित्र हैं। मोहके उदयमें अनेक कल्पनाएँ होती हैं अतः जो जीव आत्महितैषी हैं उन्हें परपदार्थोंका संपर्क त्यागना चाहिये, केवल गल्पवादसे कुछ लाभ नहीं । एक दिन पं० चन्द्रमौलिजीके द्वारा भोजनमे फलोंका आहार हुआ। भारतमें अब तक पात्रदानका महत्त्व है। यथार्थमे पात्रका होना कठिन है। यदि आगमानुकूल पात्र हों तो आज दानकी जो दुरवस्था है वह सुधर जावे । परन्तु यही होना कठिन है। पात्र ३ प्रकारके हैं-१ संयमी, २ देशसंयमी और ३ अविरत सम्यग्दृष्टि। आजकल ये तीनों पात्र प्रायः वेषमानसे मिलते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536