Book Title: Meri Jivan Gatha 02
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 449
________________ ४२१ मेरी जीवन गाया जीवकी दो पर्याय होती हैं-एक संसार और दूसरी मोक्ष । हम तो दोनों पर्यायाको सत्य मानते हैं। जब कि ये अपने अपने कारणोंसे होती हैं तब एकको सत्य और दूसरीको असत्य मानना यह हमारे ज्ञानमें नहीं आता। हाँ, यह अवश्य है कि एक पयाय अनादि-सान्त है और दूसरी सादि-अनन्त है । इन दोनों पर्यायोंका आधार आत्मा है, एक पर्याय आकुलतामय है क्योंकि उसमे पर पदार्थों का संपर्क है और दूसरी आकुलतासे रहित है क्योंकि उसमे परपदार्थोंका सपर्क दूर हो गया है। जहाँ पर पदार्थके संपर्कको जीव निज मानता है और जहाँ परमें निजत्वकी कल्पना करता है वहीं आपत्तियोंकी उत्पत्ति होने लगती है। क-कर्माधिकारमें स्वामीने यही तो लिखा है कि जब तक आत्मा आलव और आत्माके विशेष अन्तरको नहीं जानता तब तक यह अज्ञानी है और अवस्थामें क्रोधादिमें प्रवृत्ति करता है। यहाँ क्रोध उपलक्षण है अतः मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योगका ग्रहण समझना चाहिये । क्रोधादि कषायोंमे प्रवर्तमान जीवके कर्मोंका संचय होता है। इस तरह भगवान्ने जीवके वन्ध होता है यह बतलाया है। आत्माका जानके साथ तादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध है अर्थात् आत्माका ज्ञानके साथ जो सम्बन्ध है वह कृत्रिम नहीं, किन्तु अनादिकालसे चला आया है। यही कारण है कि आत्मा निःशङ्क होकर ज्ञानमें प्रवृत्ति करता है। करता क्या है ? स्वाभाविक यह प्रवाह चल रहा है और चलता रहेगा। इसी तरह यह जीव संयोगसिद्ध सम्बन्धसे युक्त जो क्रोधादिक भाव हैं उनके विशेष अन्तरको न जानता हुआ अज्ञानके वशीभूत हो उनमें प्रवृत्ति करता है । यह जीव जिस कालमें क्रोधादिको निज मानता है उस कालमें क्रोधादिक भावरूप क्रिया परभाव होनेसे यद्यपि त्याग योग्य है तो भी उस क्रियामे स्वभावरूपका निश्चय होनेसे यह उन्हे उपादेय मानता है जिससे कभी

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