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मेरी जीवन गाथा वोलनेका अधिकार नहीं पर उनकी आज्ञाका पालन करना हमारा कर्तव्य है
प्रकरण समयसारके बन्धाधिकारका था। 'रत्तो बंधदि कम्म मुंबदि' आदि गाथाका अवतरण देते हुये मैंने कहा कि मिथ्यात्व, अज्ञान तथा अविरतरूप जो त्रिविध भाव हैं यही शुभाशुभ कर्मबन्धके निमित्त हैं, क्योंकि यह स्वयं अज्ञानादिरूप हैं। यही दिखाते हैं
जैसे जव यह अध्यवसान भाव होता है कि 'इदं हिनस्मि' मैं इसे मारता हूँ तब यह अध्यवसानभाव अज्ञानमय भाव हे क्योंकि जो आत्मा सत् है, अहेतुक है तथा बप्तिरूप एक क्रियावाला है उसका और रागद्वेषके विपाकसे जायमान हननादि क्रियाओंका विशेष भेदज्ञान न होनेसे भिन्न आत्माका ज्ञान नहीं होता अतः अज्ञान ही रहता है, भिन्न आत्मदर्शन न होनेसे मिथ्यादर्शन रहता है और भिन्न आत्माका चारित्र न होने से मिथ्याचारित्रका ही सद्भाव रहता है। इस तरह मोहकर्मके निमित्तसे मिथ्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका सद्भाव आत्मामे है। उन्हीके कारण कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप वन्ध होता है। __ यदि परमार्थसे विचारा जावे तो आत्मा स्वतन्त्र है और यह जो स्पर्श रस गन्ध वर्णवाला पुदगलद्रव्य है वह स्वतन्त्र है। उन दोनों के परिणमन भी अनादि कालसे स्वतन्त्र हैं परन्तु उन दोनोंमे जीर दव्य चेतन गुणवाला है और उसमे यह शक्ति है कि जो पदार्थ उसके सामने आता है वह उसमें झलकता है-प्रतिभामित होता है। पुदगलमें भी एक परिणमन इस तरहका हूँ किजिनमे उससे भी रूपी पदार्थ मालकता है पर मेरेमें यह प्रतिभामित है, मा उसे मान नहीं। इसके विपरीत श्रात्माने जो पदार्थ प्रतिभाममान होता है उसे यह भान होता है कि ये पदार्थ मेरे शानने पाये। यही