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मेरी जीवन गाथा घात हो रहा है उसका मूल कारण यह लोभ ही है । आजकल तत्त्वज्ञानका आदर नहीं, केवल ऊपरी वातोंसे लोकको रञ्जन करना ही व्याख्यानका विषय रहता है। मैंने बहुत विचार किया कि अब इन विषयोंमें न पड़े तथा आत्मकल्याणकी ओर दृष्टिपात क्रूँ, परन्तु पुरातन संस्कार भावनाके अनुसार कार्य नहीं होने देते। व्याख्यान देना तभी उपयोगी होगा जिस दिन आत्मप्रवृत्ति निर्मल हो जावेगी। उसी दिन अनायास संवर हो जायेगा, संवर ही मोक्षमार्ग है। इसके विना मोक्षमार्गका लाभ होना अति कठिन नहीं असंभव है। मनुष्योंके साथ विशेप संपर्क नहीं करना चाहिये, क्योंकि संपर्क ही रागका कारण है। रागके विपयको त्यागनेमे भी राग की निवृत्ति होती है। निर्विपय राग कहाँ तक रहेगा ? सर्वथा ऐसा सिद्धान्त नहीं कि पहले राग छोड़ो पश्चात् विषय त्यागो। ...यदि क्षयोपशम ज्ञानको पाया है तो उसे पराधीन जान उसका अभिमान छोड़ो। भोजनकी लिप्सा छोड़ो। उदयानुकूल कार्य होते हैं। परने हमारा उपकार किया हमने परका उपकार किया यह अहंकार त्यागो। न तो कोई देनेवाला है और न कोई हरण करनेवाला है। सर्व कार्य सामग्रीसे होते हैं। केवल दैव भी कुछ नहीं कर सकता और न केवल पुरुषार्थ ही कार्यजनक है, किन्तु सामग्री कार्यजननी है । वाह्याभ्यन्तर निमित्तकी उपस्थिति ही सामग्री कहलाती है ।
सामलीके बाद विशेप आवास काँदलामे हुआ। यहाँ प्रवचनमें मनुप्योंका समुदाय अच्छा रहा, किन्तु समुदायसे ही तो कुछ नहीं होता। शास्त्र प्रवचन केवल पद्धति मात्र रह गया है। वास्तवम तो न कोई वक्ता है और न श्रोता है। मोहकी बलवत्तामे ही यह सब ठाठ हो रहा है। जहाँतक मोहकी सत्ता है वहाँ तक यह सब प्रपञ्च है । संसारके मूल कारण रागादिक हैं। इनके सद्भावम ही यह सर्व हो रहा है। रागकी प्रबलता पष्ट गुणस्थान तक ही