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१०४ . मेरी जीवन गाथा थी। छहढालाके कर्ता पं० दौलतरायजीने भी अपना अन्तिम जीवन यहीं विताया और तत्त्वचर्चा तथा स्वाध्यायकारस लिया एवं अनेक आध्यात्मिक पद बनाये । प्रसन्नता हैं कि शास्त्रसभाकी परम्परा अभीतक चली आ रही है।
मन्दिरके निर्माता राजा हरसुखरायजीके पिता लाला हुकूमत सिह हिसारके रहनेवाले थे । दिल्लीके वादशाहके आग्रहसे दिल्ली आकर रहने लगे थे। वादशाहने उन्हे शाही मकान प्रदान किया था। लाला हुकूमतसिंहके पाँच पुत्र थे-१ हरसुखराय, २ मोहनलाल, ३ संगमलाल, ४ मेवाराम और ५ तनसुखराय। इनमे हरसुखराय ज्येष्ठ थे। आप बहुत ही गंभीर तथा समयानुकूल काय करने में अत्यन्त पर थे। बादशाहने इन्हें अपना खजांची वना दिया तथा इनके कार्यसे वह इतना खुश हुआ कि इन्हें 'राजा' पदसे अलंकृत कर दिया। इन्हें सरकारी सेवाओके उपलक्ष्यमे तीन जागीरें सनदें तथा सार्टिफिकेट आदि भी प्राप्त हुए थे जो उनके कुटुम्बियोंके पास आज भी सुरक्षित हैं। ये स्वभावतः दानी और दयालु थे। इनके पास जा कर कोई गरीव मनुष्य असहाय नहीं रहा। वि० सं० १८५८ को रात्रिके समय विस्तर पर पड़े पड़े राजा साहबके मनमे मन्दिर बनवानेका विचार उठा
और दूसरे दिन प्रातःकाल ही उस विचारको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिये आपने अपने मकानके पास ही विशाल जमीन खरीद ली तथा वादशाहसे मन्दिर निर्माणकी आजा ले ली। शुभ मुहृतम मन्दिरकी नींव डाली गई और मन्दिर बनना प्रारम्भ हो गया। सात वर्ष तक वरावर काम चलता रहा, परन्तु जव शिखरमे थोड़ा काम वाकी रह गया तव आपने काम वन्द कर दिया। काम बन्द देख लोगोंमे तरह तरहकी चर्चाएं उठीं। कोई कहता कि बादशाहने शिखर नहीं बनने दी, इसलिये काम वन्द हो गया है तो कोई कहता