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मेरी जीवन गाथा वैशाख वदी ह को सहारनपुरसे चलकर ८॥ वजे विलखनी पहुंच गये। पं० दरवारीलाल जी कोठियाके यहाँ भोजन हुआ। भद्र पुरुष हैं । सहारनपुरसे कई चौके आये । सर्व मोहका ठाठ है। जिस दिन मोहका अभाव होगा उस दिन यह सर्व प्रक्रिया समाप्त हो जायगी। मोहकी मन्दता और तीव्रतामे शुभ अशुभ मार्गकी सत्ता है। जिस समय मोहका अभाव होता है उस दिन यह प्रक्रिया अनायास मिट जाती है। मोहके नष्ट होते ही ज्ञानावरणादिक तीन घातिया कर्म अन्तर्मुहूर्तमे स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं।
वैशाख वदी १० सं० २००६ को सरसावा आ गये। पं० जुगलकिशोरजीके यहाँ भोजन हुआ। आपका त्याग और जिनवाणीसेवा प्रसिद्ध है। आपने अपना समस्त जीवन तथा समस्त धन जिनवाणीकी सेवाकोलिये ही अर्पित कर दिया है । आपका सरस्वती भवन दर्शनीय है। यहाँ १ घटनासे चित्तमें अति क्षोभ हुआ और यह निश्चय किया कि परका समागम आदि सर्व व्यर्थ है। आत्मा स्वतन्त्र हैं। स्वतन्त्रताका वाधक अपनी अकर्मण्यता है। अकर्मण्यताका यह अर्थ है कि उसकी ओर उन्मुख नहीं होते। परपदार्थोंके रक्षण भक्षणमें ही आत्माको लगा देते हैं। अगले दिन प्रातःबाज प्रवचन हुआ। वक्ता धर्मका स्वरूप बतलानेमे ही अपनी शक्ति लगा देते हैं। निरन्तर प्रत्येक वक्ता अपने परिश्रम द्वारा धर्मके स्वरूपको समझानेकी चेष्टा करता है, धर्मके अन्दर वाह्य आभ्यन्तर रूप दिखलानेकी चेष्टा करता है और जहाँ तक बनता है दिखलानम सफल भी होता है। परन्तु आभ्यन्तर रसास्वाद न आनेके कारण न तो आपको लाभ होता है और न जनता को। केवल गल्पवादमे परिणत हो जाता है। वैशाख वदी १२ को वीरसेवामन्दिरका १३ वाँ वार्षिकोत्सव हुआ। सभापतिके पद पर मुझे बैठा दिया। वीरसेवा मन्दिरकी रिपोर्ट, मुख्त्यार साबकी प्रेरणा पाकर दरबारी