Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 20
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर महान् निधियाँ हैं। इन दो हजार वर्ष के ज्ञात इतिहास में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य पादलिप्त, आचार्य वज्रस्वामी, आचार्य नागार्जुन, आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य जिनदत्त, आचार्य जिनप्रभ आदि अनेक महाविद्वान, वैराग्यवान् साधक आचार्य हुए हैं जिनके द्वारा रचित महा प्रभावशाली मन्त्र, यंत्र, तंत्र आदि ग्रन्थ आज भी कहीं कहीं उपलब्ध हो सकते हैं। पांचवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक पांच सौ वर्षों में इस रहस्यमय विद्या पर केवल बौद्ध भिक्षुओं ने ही दो-ढाई हजार ग्रंथ रच डाले थे। तिब्बत, चीन, लंका, मंगोलिया, बर्मा, कम्बोडिया आदि देश तो तांत्रिक बौद्ध लामाओं के गढ़ थे। हमारे आगमिक ग्रन्थों में यद्यपि मन्त्र-विद्या का उल्लेख उपलब्ध नहीं हो सका, पर पारम्परिक प्रसिद्ध जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता चली आ रही है। लेकिन कुछ समय उपरान्त हमारे महान आचार्यों ने सोचा कि कहीं स्वल्प सत्व, धैर्य व गंभीर हृदय वाले साधक इसका दुरुपयोग न कर लें, इस जनहित की भावना से पूर्व-आचार्यों ने अपने शिष्यों को इस अध्ययन की वाचना देना बन्द कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप शनैःशनैः कालक्रम से मंत्र विद्या का अध्ययन विलुप्त हो गया। वैसे हमारे पूर्वाचार्यों को अनेकों विद्याएं सिद्ध थीं। आचार्य कुन्दकुन्द महाराज विद्या के बल से ही विदेह क्षेत्र गये थे। कहा जाता है कि वह लौटते समय अपने हाथ में तन्त्र मंत्र का ग्रन्थ भी लाये थे किन्तु वह मार्ग में लवण समुद्र में गिर गया। और भी कहा है कि एक बार गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया, तब उन्होंने वहां ब्राह्मी देवी के मुख से कहलवाया था कि “दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है।" इससे ज्ञात होता है कि वह मंत्र- तंत्रों के ज्ञाता थे और उन्हीं के शिष्य आचार्य उमास्वामी जी महाराज को आकाश गामिनी विद्या प्राप्त थी, उनके शिष्य आचार्य पूज्यपाद जी महाराज भी तंत्र विद्या के प्रयोग से विदेह क्षेत्र में साक्षात विराजमान भगवान सीमंधर स्वामी के दर्शन करने गये थे। आचार्य वादिराज जी महाराज ने कारणवसात् स्तोत्र विद्या से कुष्ठ रोग दूर किया। • आचार्य समन्तभद्र स्वामी महान मन्त्रवेत्ता थे उन्होंने अपने मंत्रों के प्रभाव से बनारस नगरी में शंकरजी की पिण्डी में से चन्द्रप्रभ की प्रतिमा को प्रगट कर दिया था। इस तथ्य का समर्थन श्रवणबेलगोला के शिलालेख में मिलता है बन्धो भस्मक-भस्म सात्कृति-पटु पद्मावती देवता। दत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र वचन-व्याहूत-चन्द्रमत्रः । आचार्यस्य समन्तभद्रगण भृधेनेह काले कलौ, जैनंवर्त्म समन्तभद्रय भवद्भद्रं समन्तान्मुहूः ।। इसके अतिरिक्त आचार्य समन्तभद्र पर पद्मावती देवी की विशेष कृपा थी जो मंत्रों की आराध्य देवी मानी जाती है। - 20

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