Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 48
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मंत्र अधिकार मुनि प्रार्थना सागर तंत्र अधिकार मंगलाचरण णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ एसो पंच णमोयारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि । साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ॥ मंत्र विद्या मकारं च मनः प्रोक्तं त्रकारं त्राण मुच्यते । मनस्त्राणत्व योगेन मंत्र इत्यभिधीयते ॥ अर्थात् 'मं' का अर्थ निज से संबंध रखने वाली मनोकामना, 'त्र' का अर्थ है रक्षा करना, इस प्रकार जो मनोकामना की रक्षा करे वह 'मंत्र' कहलाता है । वैष्णव धर्म के ग्रन्थों में लिखा है- 'मननात् त्रायेत यस्मात्तस्मान्मन्त्रः प्रकीर्तितः' अर्थात् 'म' कार से मनन और 'त्र' कार से रक्षण। अर्थात् जिन शब्दों वाक्यों, विचारों से मनोकामना की रक्षा हो उसे मंत्र कहते हैं । वैसे जिन शब्दों के जाप से कार्य सिद्ध हो उसे मंत्र कहते हैं या जिन शब्दों के जाप से मन में शान्ति हो उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र शब्द का मूल अर्थ है गुप्त परामर्श क्योंकि मंत्र शब्द की उत्पत्ति मतृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है गुप्त बोलना । आगम में लिखा भी है। 48

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