Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 63
________________ मंत्र अधिकार मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर मृत्यु, १०. मघा- दुखमोचन, ११. पूर्वा फाल्गुनी-सौन्दर्य, १२. उत्तरा फाल्गुनी-ज्ञान, १३. हस्त-धन, १४. चित्रा-ज्ञानवृद्धि, १५. स्वाति-शत्रुनाश, १६. विशाखा-दुख, १७. अनुराधा-बंधुवृद्धि, १८. ज्येष्ठा-पुत्र हानि, १९. मूल-कीर्तिवृद्धि, २०. पूर्वाषाढ़ा-यश वृद्धि, २१. उत्तराषाढ़ा- यश वृद्धि, २२. श्रवण-दुख, २३. धनिष्ठा- दारिद्रय, २४. शतभिषा-बुद्धि, २५-२६. पूर्वाभाद्रपद व उत्तरा भाद्रपद-सुख, २७. रेवती-कीर्ति वृद्धि। नोट- मकर संक्रान्ति, कर्क संक्रान्ति, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, सोमवार-अमावस्या, मंगलवार-चतुर्दशी, रविवार-सप्तमी हो तो मंत्र ग्रहण करने में शुभ हैं। मंत्र यंत्र तंत्र शक्ति का महात्म्य अचिन्त्यं ही तपो विया मणि मन्त्रो शधिशक्त्यतिशयं माहात्म्यं दृष्ट त्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिसंयतत्वात्। अर्थ-विद्या, मणि,मंत्र, औषध आदि की अचिन्त्य शक्ति का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखने में आता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं है, ऐसा समस्त वादियों ने कहा है। मंत्र-तंत्र की शक्ति पौद्गलिक है जोणि पाहडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो-पोग्गलाणुभागौ त्ति धेत्तव्यो। अर्थ- योनि प्रभृत में कहे गए मंत्र-तंत्र रूप शक्तियों का पुद्गलानुभाग है। ___ मंत्र तंत्र सिद्धि का मोक्ष मार्ग में निषेध वशीकरण,आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, जल, अग्नि, विष, सेना आदि का स्तम्भन, नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्र-जाल साधन, जीत हार विद्या, परविद्या छेदन, ज्योतिष का ज्ञान, वैद्यक विद्या साधन, यक्षिणी मंत्र, गड़े धन देखने का अंजन, शस्त्रादि का साधन, भूत व सर्प साधन, इत्यादि व क्रिया रूप कार्यों में रत पुरुष दोनों लोकों को नष्ट करता है। परिस्थिति वश मंत्र प्रयोग की आज्ञा स्तेनै रूपद्रूयमाणानां तथा श्वापदैः दुष्टर्वा भूमिपालै नदीरो धकैर्माया च तदुपवनिरास: विद्यादिभिः। अर्थ-जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुंचा हो, नदी के द्वारा रूक गए हों, भारी रोग से पीड़ित हो गए हों तो उसका उपद्रव विद्यादिकों से नष्ट करना उनकी वैय्यावृत्ति है। किन्तु मंत्र द्वारा साधु का आजीविका करने का निषेध जो साधु मंत्र द्वारा धनोपार्जन करते हैं, वास्तव में वे निर्लज्ज अपनी माता को जैसे वैश्या बनाते हैं (ज्ञा. ४१५६-५७) जो मुनि मंत्र-तंत्र औषध द्वारा आजीविका करके वैश्योंवत् धन-धान्य का ग्रहण करता है वह साधु मार्ग को दूषित करता है। 63

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