Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 49
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मंत्र अधिकार तेजस्करं मुक्ति करं प्राणांतेपि न दीयते, येन दत्तात्वियं विद्याऽनर्ध्यातेन जिनं वपुः । गता विद्या प्रतापश्च तेजस्कांतिवीर्यस्तथा, तेन विद्या न दातव्या प्राणांतेपि न धीधनैः ।। मुनि प्रार्थना सागर अर्थात् मंत्र तेज देने वाला, मुक्ति देने वाला है, इसको प्राणांत के समय भी किसी को नहीं देना चाहिए। जिसने भी इस अनमोल विद्या को दिया है, उसका तेज, कांति और वीर्य सब नाश को प्राप्त हो गया है। इसलिए प्राणों का अन्त होते समय अर्थात् मरते वक्त भी यह मंत्र विद्या किसी को भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है स्युमंत्रयंते गुप्तं भाष्यंते मंत्रविभिद्रिति मंत्राः। अर्थ- जिनको गुप्त रूप से कहें वे मंत्र कहलाते हैं। यह शब्द का व्युत्पति के अनुसार अर्थ है । मंत्रों का मूल - अकारादिहकारान्त वर्णाः मंत्राः प्रकीर्तिताः । अर्थ- अकार से लेकर हकार तक के स्वतंत्र असहाय अथवा परस्पर मिले हुए वर्ण (अक्षर) मंत्र कहलाते हैं। अथवा- “मननात् त्रायेत इति मन्त्रः - जिसके मनन करने से रक्षण हो वह मंत्र है। मंत्र साधना में मूल तथ्य है - मनन अर्थात् मन्त्री (साधक) की भावना व अक्षरों के साथ तादात्मय ही मंत्र की सार्थकता है और यही इसकी विराट शक्ति है। जिसके बल पर मंत्र असाध्य को भी साध्य कर देता है । अप्राप्य को भी प्राप्य कर देता है और इष्ट सिद्धि में सहायक होता है । मन्यते ज्ञायते आदेशों अनेन इति मंत्रः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश - अनुभव जाना जावे वह मंत्र है । अथवा मन्यते विचार्यते आत्मदेशो येन सः मंत्रः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा के स्वरूप का विचार किया जावे वह मंत्र है। अथवा मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थितः आत्मा वा यक्षादि शासन देवता अनेन इति मंत्रः । अर्थात् जिसके द्वारा परमपद स्थित पंच परमेष्ठियों का अथवा यक्षादि शासन देवों का साधन किया जाये वह मंत्र है। " अथवा - "मननात् मन्त्रः मनन करने के कारण ही मन्त्र नाम पड़ा है । मन्त्र, मनन को उत्प्रेरित करता है, वह चिन्तन को एकाग्र करता है । अध्यात्मिक ऊर्जा (शक्ति) को बढ़ाता है। जैसे सूर्य की किरणों को एक कांच ( लेन्स) के माध्यम से एकत्रित करने पर अग्नि उत्पन्न हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन्त्र के माध्यम से मन को एकत्रित करके ऊर्जा (शक्ति) उत्पन्न हो जाती है जिससे सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। I 49

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