Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 41
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर प्रयोग अहिंसा संस्कृति के अनुकूल कदापि नहीं है। लौकिक व्यवहार में भी भोजन के समय मारना, नष्ट करना जैसे हिंसा वाची क्रिया पद के उच्चारण में अन्तराय माना जाता है। अतः कोई भी अहिंसक व्यक्ति इन शब्दों का प्रयोग मंगल कार्य में नहीं कर सकता। ५. मंगल वाक्यों का स्मरण सर्वथा कल्याण कामना में किया जाता है। किसी भी मंगल वाक्य में 'शत्रु' और 'हन्त' धातु जैसे पदों का प्रयोग कदापि मांगलिक नहीं माना जा सकता। ६. साधक की दृष्टि सबसे पहले शब्दों पर जाती हैं तत्पश्चात अर्थ पर। यदि शब्द ही किसी दोष से दुष्ट हो तो वह मंगल वाक्य कल्याण प्राप्ति का परिचायक नहीं हो सकता है। ७. बीजाक्षरों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अरिहंत पद में प्रयुक्त अरि' शब्द में निहित 'ह' कार शक्ति बोधक बीज है। जिसका व्यवहार मारण और उच्चाटन के लिए किया जाता है अत: मंगलमय आत्माओं के स्वरूपांकन में शक्ति बीज का न्यास संभव नहीं है। ९. अहिंसा संस्कृति आत्मशोधन पर विशेष बल देती है अतः 'अरि' 'अरु' और 'हन्त' का प्रयोग संभव नहीं है। कारण 'उ' भी उद्वेग बीज माना गया है। १०. जो कर्मों को शत्रु मानते हैं वह उनका भ्रम है। क्योंकि कहा भी जाता है कर्म विचार कौन भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घनघात, लोह की संगत पाई॥ कर्म तो जड़ हैं, उनकी सुख-दुख देने की इच्छा नहीं है। जीव अपने रागादि परिणामों से पुद्गल को कर्म रूप परिणमित करके अपना बुरा करे तो इसमें कर्मों का क्या दोष? इसलिए योग्य पुरुष कर्मों को शत्रु (अरि) नहीं मानते। अतः कर्मों को 'हंत' करने का ‘घात-नष्ट' करने का विचार भी महापुरुष के मन में नहीं आता।। ११. जो यह कहते हैं कि अरिहंत ने कर्मों को नष्ट किया, तो यह कथन भी अनुचित है। कारण जीव अपने स्वरूप को भूलकर चौरासी लाख योनियों में अपने शुभ-अशुभ भाव के कारण भ्रमण करता है। जब जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान होता है तब वह 'पर' का पीछा छोडकर 'स्व' में रमण करना प्रारंभ करता है, इस अपेक्षा से जीव जब 'स्व' में रमण करता है तो कर्म उदय में आकर, क्षय होकर अलग हो जाते हैं। अत: यह कहना अनुचित है कि जीव ने कर्मों का नाश किया है। १२. जो जीव कर्मों को शत्रु मानकर, मन में उनके प्रति द्वेष रखकर तप और जप करके कर्मों का नाश करने का विचार करते हैं, वे केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि कर्मों को शत्रु मानने से राग द्वेष सहज ही हो गया। जबकि जहाँ राग-द्वेष होता है वहाँ केवलज्ञान नहीं हो सकता। - 41

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