Book Title: Mantra Yantra aur Tantra
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 23
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर मन्त्र को भुजा पर बांधने से 'निकिडा व निकिशा तन्तु ड़छो तीजा' है। काफी सोचने के बाद मुझे मालूम हुआ कि ये तो उल्टे अक्षरों में लिखा है, जैसे डाकिनी शाकिनी तुरन्त छोड़ जाती हैं आदि। आपके मन में प्रश्न हो सकता है- आखिर मंत्र - यंत्र - तंत्र है क्या ? तो मेरी दृष्टि से यह एक वैज्ञानिक, अभूतपूर्व चमत्कारी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से साधक चिन्तित फल प्राप्त करता है। जैसे सूर्य की किरणों को एक कांच ( लेन्स) के माध्यम से एकत्रित करने पर अग्नि उत्पन हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन्त्र के माध्यम से मन को एकत्रित करके ऊर्जा (शक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि मन्त्र फैली हुई ऊर्जा (शक्ति) को एकत्रित करता है, बढ़ाता है । इस विद्या में मुख्यतः तीन विशिष्ट क्रियाओं का समावेश होता है- मन्त्र - यन्त्र और तन्त्र । मंत्र - विशिष्ट प्रभावक शब्दों द्वारा निर्मित किया हुआ वाक्य मंत्र कहा जाता है। उसका बार-बार जाप करने पर शब्दों के पारस्परिक संघर्ष के कारण वातावरण में एक प्रकार की विद्युत तरंग उत्पन्न होने लगती है जिससे साधक की इच्छित भावनाओं को बल मिलने लगता है। फिर वह जो चाहता है, वही होता है। मंत्रों की सिद्धि के लिए उनके हिसाब से जाप की विभिन्न मात्रा में शब्द, अंक तथा विभिन्न प्रकार के पदार्थों से बनी मालाएँ, विभिन्न प्रकार के फल-फूल, आसन, दिशाएं, क्रियाएं इत्यादि का भी विशेष महत्व होता है। यंत्र - जो किसी विशिष्ट प्रकार के कागज, पत्र या धातु पर, किसी विशिष्ट प्रकार के निर्धारित अंकों, शब्दों या आकृतियों को बनाकर विशेष प्रकार के मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है उसे यन्त्र कहते हैं । फिर उस यंत्र को किसी ताबीज आदि में रखकर किसी की बांह में बांध दिया जाता है या गले में लटका दिया जाता है अथवा किसी स्थान पर रख दिया जाता है अथवा चिपका दिया जाता है, जिससे कार्य सिद्धि होती है । तंत्र- तन्त्र का सम्बन्ध विज्ञान से है। इसमें कुछ ऐसी रसायनिक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, जिससे एक चमत्कार पूर्ण स्थिति पैदा की जा सके; लेकिन किसी प्रकार के मंत्र-यंत्र-तंत्र के प्रयोग के लिए बारह प्रकार की शुद्धियों का होना आवश्यक है। १.द्रव्यशुद्धि ः- पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में करने के लिए, शरीर को स्वच्छ व निर्मल रखना द्रव्य शुद्धि है; लेकिन बाह्य द्रव्य शुद्धि के साथ अन्तरंग द्रव्य शुद्धि भी अनिवार्य है । अर्थात् जाप करने के पहले यथाशक्ति अपने अन्दर के विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, माया आदि) को हटाना आवश्यक है; क्योंकि यहां द्रव्यशुद्धि का अभिप्राय पात्र की अन्तरंग शुद्धि से है। २. क्षेत्रशुद्धि: - निराकुल स्थान, जहां किसी प्रकार का शोरगुल / आवाज न होती हो, डॉस- मच्छर आदि बाधक जन्तु न हों, चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले उपद्रव एवं शीत-उष्ण की बाधा न हो, ऐसा एकान्त निर्जन स्थान मंत्र साधना के लिए उत्तम है I 23

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