Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 18
________________ तात ॥ १॥ चाल्या मध्य बजार थी। कुवरी अति शरमाय ॥ वो अंग छिपावती । पति ने पाछल धाय ॥ २ ॥ आण फिराइ पुर विषे । राजाजी ते वार ॥ जो क इ साज तसदेवसी । ते राजारो गुन्हे गार ॥ ३ ॥ सुणी सह चुपका ग्ह्या । कोइ नहीं बतलाय ॥ जोड़ा स्वार्थ संसार नो । मदिरा संवग रचाय ॥ ४ ॥ आया दोनो ग्राम वाहिरे । यक्ष देवालयाच मांय ॥ भूखा प्यास थ क्या तिहां । बैठा दोना सुस्ताय ॥ ५ ॥ ७ ॥ ढाल ६ ठी॥ बलती तो देखी द्वारका ॥ यह ॥ मन्दिरा दुःव न दवी सक्यो जी । रवी पश्चिम में छि-- पाय ॥ निशा पडी तम व्यापीयो । दोनो दम्पती देवल माय जी ॥ सत्य द्रढता जोई। लो ॥ आं॥॥ कुँवरी अंगोपांग जोइ ने । कुष्टि नणे नीर वहाय ॥ मन्दिरा पूछे कर जोडने । सुख स्थाने दुःख किम आय जी ॥ सत्य ॥ २ ॥ कुष्टी कहे किर्मा कहं में म्हारा कर्म की बात ॥ नारी मिली तुझ सारखी ॥ पण कर्म करी व्याघातरे ॥ सत्य ॥३॥ du रुधीर झरीतरे तन महारेरे । अति दुगंध महकाय ॥ अंगो पांग गली गया । किमान सुख मुंज थी विलसाय जी ॥ सत्य ॥ ४ ॥ तात तुमारे राजवीरे । कियो मोटा अन्याया। K कोयतुर सो नहीं । न्हाखी तुझन मा दुःव मांयर ॥ सत्य ॥ ५ ॥ गयेसने संग का हंसली रे । सिंहग रासंभ संग ॥ शाभ नहीं लिम मुम संगे तू । तेह थी भयो मन भंगा २गदा

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