Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 25
________________ .... .... . . .. A J ख ण्ड नन में अपार ॥ अश्चर्य पण पाइ घणो । अहो २ मोहो बिकार ॥ १ ॥ देव गति में म. स. अवतरी । मति गिल्याणी धार ॥ चलाइ सधर्म से । आमंत्रे व्यभिचार ॥ २ ॥ कठिण खण्ड वयण कहवण तणो । इण ने अवसर नाय ॥ मिठासे उतर दइ । विदा करूं समजाय ॥ ३॥ वस्त्र तन निज संभरी । निति गंभीर बचन ॥ निज पतिवृत निभाववा । उत्तर दे। इण पर ॥ ४ ॥ ढाल ९ मी ॥ उग्रसेन की लली ॥ यह ॥ सुणो माता हित कार । सती तो न करे व्यभिचार अंगिकार ॥ ७ ॥ आप म्हारे पर घणो कियो उपकार ॥ मुज काज भोगी तस्दी अगर ॥ सुणो ॥ १॥ आप तो छो बुद्ध वन्त गुण वन्त । आपा ११ आगे म्हारी बुद्दी सी चलन्त ॥ सुणो ॥ २ ॥ तो पण विनय थी करूं उचार । जोगा। Kजोग को आप करो विचार ॥ सुणो ॥ ३ ॥ तात मात हजारों मनुष्य ने समक्ष । कुष्टि क नो हाथ ग्रह्यो में हो दक्ष ॥ सुणो ॥ ४ ॥ पुर पर जन सह जाणी यह बात । मंदिरागइ कुष्टिक नी साथ ॥ सुणो ॥ ५॥ हिवे अन्य नर मुज थी केम वराय । लोकीका। विरुद्ध यह घणो देखाय ॥ सुणो ॥ ६ ॥ तेह थी निश्चय में म्हारे मन कीध । कुष्ठिक एd पति म्हारा देव मुज ने दीध ॥ सुणो ॥ ७॥ याने छोडी इन्द्र चन्द्र की न करूं चहाया । । सह थी अधिक येही पति सुख दाय ॥ सुणो ॥ ८ ॥ इण पति ने प्रशादे दोनों लोकार

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