Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 38
________________ सहू आनन्द पाया | देखी महिमा सत्य शील की | आं ॥ रयण झरोके दम्पती बैठा मन्दिरा नरगम जोय ।। द्रुमक रूप आगल राजा । देखे. जणावे सोय हो ॥ सहु ॥ १ ॥ आप आज्ञा धारी तात मुज । भिक्षुक रूपे आवे || तर्जनिये कर लंबावी पती ने । राजा जी ओल खावे जी ॥ सहु ॥ २ ॥ हि संतोषी याने स्वामी । हित शिक्षा भली दीजे ॥ दोनो तत्क्षिण ऊठी चाल्या । वृद्ध नियम साचवीजे जो ॥ सहु ॥ ३ ॥ द्वारे आतां न ज्या राय जी । मणी चूड पग लागो | देखी विनय दोनों भूधव को । सहु तणो भय आगो जी ॥ सहु ॥ ४ ॥ मन्दिरा पण नमी तात ने । मधुर वयण दर्शावे ॥ देखो कर्म बली किसा तात जी । राय ने रंक बणावे जी || सहु ॥ ५ ॥ अने जे दीधी रंक ने कं न्या । ते हुइ खेचर पतनी । येही विचित्रता हो रही जग में । खबर नहीं कर्म गत नी जी ॥ सहु || ६ || खेचर पत ढिग पूत्री जो निज । राय अति मुरजायो | अरे या कुल खप्पन मुज निवडी । कुष्टिने छिटकायो जी || सहु ॥७॥ जार कर्म की धा पापणी । रुडो नर जोइ वरीयो | धिक २ म्हारी बुद्धि ने हो । वे विचार में करियो जी || सहु ॥ ८ ॥ रोशे भरीयो नांही विचारी । द्रुमक ने परणाइ || म्हारा हाथे म्हारी फजीती। महीज दुष्ट कराई जी ॥ सहु ॥ ९ ॥ इम पस्तावो कर ते भूप ने । मन्दिरा ए इंगिते जाण्यो | अन्य ॥

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