Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 39
________________ म. स. पति वरवः को तात जी । वैमज हिवणां आण्यो जी ॥ सहु ॥ १० ॥ कर जोडी वोले खण्ड? अहो बाप जी । वैम जरा मत लावो:॥व्यभिचार नहीं किया तुम पुत्री। रूपे मत भरमावो । जी ।। सहु ॥ ११ ॥ जे कुष्टि ने तुम परणाई । ते नहीं होता कुष्टि ॥ ते एही नर इन्द्रधि समाना । सोह ऋद्धि सिद्ध पुष्टी जी ॥ सहु ॥ १२ ॥ कारण सिर ते रूप बणाइ । आया था पुरमाही ॥ भट गृह्या । मुझ सुभाग्य जोगे । दीधी तुम परणाइ जी ॥ सहु ॥ १३॥ du विस्मय पाइ पूछे राजा। खेचर पति प्रकाशो ॥ मन्दिरा कहे सो बात है साची। कि- १८ स्यो कियो तुम तमाशो जी ॥ सह ॥ १४ ॥ निज उत्पती ने वीतक सघलो। जिम मन्दि Nरा ने सुणायो । तिमही जे मोटे सादे मणी चूड । सहु जन में संभलायो जी ॥ सहु ॥ १५ ॥ सुणी सहु जन विस्मय पाया ॥ फिर मणी चूड उचारे ॥ धन्य २ रिपु मर्दन जी तुम ने । जे महा सती कंन्य तुमारे जी ॥ सहु ॥ १६ ॥ जे जे रूप बणाइ परिक्षा। कीनी ते सहु संभलाइ ॥ अश्चर्य अति पाया सहु सुण ने । धन्य २ कहे बाइ ताइ जी ॥ १७ ॥ राजा प्रेमातुर अति होइ । पुत्री उरे लगाइ ॥ नेणा नीर बर्षाइ बोले । क्षम अप राध मुझ बाइ जी ॥ सहु ॥ १८ ॥ अभिमान वश वेबिचार होइ । अन्याय मोटो कीनो। au तेह नो दंढ मुझ कर्म जोग ये । बाइ भलो थे दीनो नो ॥ सह ॥ १९ ॥ हिवे ए सो

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