Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 40
________________ अन्याय ने चिन्तु । जैन धर्म हूँ धारुं ॥ कर जोडी नमी मन्दिरा बोले । खमो अपराध कू म्हारुंजी | सहु ॥ २० ॥ धीठाड़ में कीधी बहुली | बचन अजुक्त सुणाया । धर्म शील ने आप पसाये । सहू आनंद वरताया जी ॥ सहु ॥ २१ ॥ आप जो इण विध नहीं करता तो । धर्म ऊंचो किम अतो ॥ ए सहू पुण्य प्रताप आपको । पुण्य शाली पति पातो जी ॥ सहु ॥ २२ ॥ वैर विरोध वैम सहू मिटिया । सुख से सहू मन भरीया || ढाल चतुर्दश ऋषि अमोलख । शील प्रताप उचरीया जी || सहु ॥ २३ ॥ दुहा ॥ खेचर विद्यार पति मणी चूड नृप । राज जोग भूषण वस्त्र ॥ तिहां मंगाया तत्क्षिणे । शिघ्र प्राप्त हुवा तत्र ॥ १ ॥ रिपु मर्दन राजा तणो । भिक्षुक भेष तजाय ॥ मणी गहणा जरी वस्त्र सर्व । नृपती अंग सजाय ॥ २ ॥ स्वग सिंहासन बैठीया । सुसरा जवाइ तेवार ॥ मन्दि रा पण योगस्थान के | बैठी सुख मझार ॥ ३ ॥ सहुं जन ने बैठण भणी । मन्डप बना यो सूचंग ॥ कन्नात चन्द्रवा जरी तणा । झग झगाट नवरंग ॥ ४ ॥ आसण विविध प्रकार का । विद्याया बैठा सर्व ॥ करे पर संज्ञा उभय की । शान्यो ते मोटो पर्व ॥ ५ ॥ १७ || ढाल १५मी ॥ मिजवानी की देशी || भव्य जन सत् शील सुख दाणी । सुख दाणी इहां आगे आणी हो राज || भव्य || ॐ || विद्या पसाये निपायी आहारो । असण पाण

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