Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 23
________________ विण्डर म. स. गमावसी ॥। मन्दिरा मेख.नमेख रही जोइ । यह युगल किणरो होइ।इहां आया कारण कोई नर सुर कुण छे ए दोइ । सुण ॥ १॥ तव दिव्य नारी तस बोलावे । अती मीठे बचने समजावे । बाई बैम जरा मत लावे । हूं आइ हूं थारे हित दावे ।। सुण ॥ २ ॥ मुज ने नगर रक्ष सुरी धारो । हूं गुप्त आइ ग्राम मझारी । राज शभा जोती थी जेवारो । होतो दीठो जबर अनाचारो ॥ सुण ॥ ३ ॥ यह बाप केणो के कसाइ । जरा दया घट नही आइN । सुकुमाल निज बच्ची ताइ । दी कोडीया भिक्ष ने परणाइ ॥ सुण ॥ ४ ॥ जे देखी दुःख घणो में पाइ । रीस पण अधिकी आइ । मारी हाखू दुष्ठ राजा ताइ । पण म्हारो। जाणी दया लाइ ॥ सुण ॥ ४ ॥ तुज द्रढता देखी माह जगायो । तुज सुखी करण मन डो लगायो । तिहां थी महारो तन भगीयो । जोडी जोती हूं उडी खगीयो ॥ सुण ॥ ५/- आकाश N॥ बहला देश फिर्या जोइ । पण गुगवन्त तुज सम नहीं कोई । गुण होवे तो रूप ना होई । इम विप्रीत पेखी हूं रोइ ॥ सुण ॥ ६ ॥ तेतले मार्ग ने मांइ । यह कुंवर जी जाता दीटाइ । दिव्य रूप देख में हर्षाइ । ज्ञाने गुण रूडा दीठाइ ॥ सुण ॥ ७ ॥ मगधाद्विप नरकेशरी राया । नर शेकर कुँवर ये कह वाया । धर्म कर्म कला में घणा डाया। तुझ सुभाग्ये मुज ने पाया ॥ सुण ॥ ८॥ धर्म कारण तात थी लडीया। वादी विजया

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