Book Title: Mandira Sati Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Lala Shivkarandasji Arjundas

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Page 34
________________ २. मुख वीयो जी । तत्क्षिण मणी चूड रूप बणावीयो जी ॥ म्हारे ॥ ११॥ वर वस्त्र भूषण शोभाविया जी। मुकुट कुंडल ए अनेन दीपावीयाती॥ म्हारे ॥ १२ ॥ कहो प्यारी हिवे किसो कीजीये जी । होवे इच्छा सो हुकुम करीजीये जी ॥ म्हारे ॥ १३ ॥ सती कर जोडी कहे नाथ सांभलो जी । मेटो मुज तात मन को आम्लो जी ॥ म्हारे ॥ १४ ॥ जिम तज ते मिथ्या भ्राम ने जी। नहीं करे पुनः एहवा कर्म न जी ॥ म्हारे ॥ १५ ॥ जैसा रुपे परणावी मुज भणी जी । तेही रूप बोलावो राज ए अणी जी ॥ म्हारे ॥ १६ ॥ शिक्षा पायां थी धर्म ते धार से जी। म्हारा हट नो होवसे सार से जी ॥ म्हारे ॥ १७ ॥ नही अविनय कयों चहार्बु तात नो जी । पण सत्य शील दीपे तस जातनो जी॥ म्हारे ॥ १८ ॥ जो परछो ए नेणा जोवसी जी। तो धर्मी जन घणा होवसी जी ॥ म्हारे ॥ १९॥ हिवणा इच्छा येही नाथ पूरीये जी । आ चेटीना दुःख सह चरीये जी ॥ म्हारे ॥ २० ॥ खेचर पती आनन्द मानी बात ने जी ॥ ढाल द्वादश अमोल धर्मात मे जी ॥ म्हारे ॥ २१॥०॥ दुहा ॥ हर्ष उत्सहा ये खेचरु । तक्षिण विद्या प्रभाव ॥ तेहीज स्थान निपाइ । । सुवर्ण भवन सुचाव ॥१॥ सप्त खन्ड उतंग ते । चित्र विचिस प्रकार ॥ मणी कलश झग मग करे । देव भवन आकार ॥ २ ॥ भोगोप भोग ने

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