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लेस्यूं हूं अग्नि शरणजी ॥ सत्य ॥ १६ ॥ तन बिगडया थी दुःख नही जी । मन विगडया दुःख पूर ॥ एक भव के कारणे । भव अनंत बिगाडे कूर जी ॥ सत्य ॥ १७ ॥ अधिकार सह सिणगार थी जी। नारी ने सील सिणगार ॥ स्वपति तज वंछे अन्य भणी जी । तेहा । ने कोटय धिक्कार जी ॥ सत्य ॥ १८ ॥ महारे भावे तो आपछो जी । इन्द्र थी अधिकारी रूप वन्त ॥ कुंबरे थी अधिक ऋद्धि धणी जी । महा बली अहो कन्त जी ॥ सत्य ॥ १९५ M वीनंती दासी तणी जी एक मानो शिरदार ॥ पूर्वोक्त अजोग बचन ने जी । न कभी मुख उचार जी ॥सत्य॥२०॥ संतोषाणो कुष्टी सुणी । सती प्रेमला ना सुधा वेण ॥ अमोल: अगृत कहें धन्य मन्दिरा सती सम । होवो सघली बेन जी ॥ सत्य ॥ २१॥ * ॥ दुहा ॥ ही न उत्सहा. मंजुल वयण । कुष्टि कहे धर प्यार ॥ तुज ने सुखी करवा भणी । दी हिता शिक्षा ए वार ॥ १ ॥ दुःख रूप ते प्रगनी । थारा कर्म को दोष ॥ तूं मुज ने त्यागे नहीं । मुज उप जे अपशोष ॥ २ ॥ एक उदर पोषण तणो । दुष्कर थो मुझ तांय ॥ किम । पालं हू तुज भणी । अन्न वस्त्र कर सहाय ॥ ३ ॥ सती कर जोडी भणे । चिन्ता मत । करो नाथ ॥ कृपा रही जो आप की । तो सब म्हारे आथ ॥ ४ ॥ ॥ ढाल ७ मी।। में मुख देख्यो गोडी पारस को ॥ यह ॥ धन्य २ सती मन्द्रिरावती तांइ । पति वृत द्रढ ।