Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 15
________________ उसे अनुभूति हुई है, जिमे उमने जाना है, फिर भी वह हिम्मत करता है, साहस जुटावर बोलता है और सोचता है कि हजार किरण भले ही न पहुंचे, एय गिरण तो पहुँचगी ही। अगर महावीर की वाणी पक्डपर ही काई महावीर यो खाज करने जाय तो मी महावीर नहा मिरेंग। ठेठ महावार या सुनकर ही वाइ अगर उनका वाणी पक्डवर वाजने जाय तो मी पाण पिलपुर बदर जायगा आर वह वहीं जा पहुंचेगा जहाँ महावीर नहा हागे । क्यापि मन्दो ने उसे नहीं जाना जिसे महावीर ने जाना है उसे जाना है निगन्द ने और हमने परडा है गदा यो। और फिर अनुमान है वि जिहाने महावीर के गटन सुन उनम व राग मोन म चरे गए हागे जिहें थाडी भी ममय थाई होगी और निगद पी चरम या जरा मी इशारा मिला होगा। निश्चय ही वे निगद म भाग गए हागे । जिनकी समझ में नहीं आइ होगी व मग्रह म रग गए हागे । जिमने नहीं समया होगा वह गणघर वन गया होगा। आम तौर स हम साचत हैं कि महावीर के पास जो गणपर हैं व उनले सयस अघिय समझने वार लोग हैं। पूठ इसमे वग नहीं हो सकता। महावीर के पाम जो सबसे ज्यादा समझनयारा हागा वह मौन मे चल गया होगा । जो सबसे कम समझनेवाला होगा वह महावीर ये गा दूसरा तक पहुंचाने की यवस्था म एग गया होगा। ता गणधर व नहीं हैं जिहाने महावीर को सर्वाधिक समझा है । गणघर में हैं जो महावीर की वाणी का यथाय मम तो समझ न पाये, वितु उनके गावो परट बठे और उनका संग्रह करने म लग गए। जिम अनुभव स महावीर गुजरे हैं वह अपरिग्रह में घटा है। जो उनके ना या इकट्ठा करने म लगा है वह परिग्रही यति मा व्यक्ति है। महावीर को उत्सुक्ता नहीं है गल-सग्रह का, न बुद्ध को है और न पाइन्ट यो । बम ता महापौर नी विनाय लिस मकन ये रेपिन महापौर न रिताय नहा लिपी पृष्ण ने भी नहीं खिी युद्ध और जीजस ने भी नहीं । इन अगापारण लोगा म मिप लामोत्म ने किताब रिसो और यह जवरदस्ती मनिमी। जब यह अपनी तिम उनम चीन री सीमा के पार जा रहा था तर चीन न गमाट उस अपनी चुगी बोगी पर रपवा लिया और कहा कि तुम्हें कम न पउँग । साओम न पा-ममा टस हम न ता पाइ मामान जात बाहर न पुरान हैं सपने जा रहे हैं सारी सच तो पर है कि जिगार मार्ग है। गम्राट नलिनी --ना सी माद आमा र हा नहा गया जितनी तुम लिसा रहा सब पग-गुरु दे ही जात हैं। तुम यारन ही रितुम्हार मानर पया है । यह मर पुगा दो पा-गे-नग टग दो, सम्पति मत नगे।साभारस नो . . . . .

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