Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 20
________________ १२ निरर्थक है कि महावीर के पैर स्तन का काम कर रहे थे। एक मुनि ने यह सिद्ध करने की कोशिश भी की है। लेकिन उनके तर्कों को सुनने के बाद मैंने उनने कहा कि यदि यह प्रमाणित भी हो जाय तो इसमें महावीर का मूल्य बढता नहीं, बिल सी जाता है। अगर किसी के भी पैर स्तन का काम कर रहे हो तो उनसे दूध निकल आयगा । यदि महावीर के चरणो मे इसी कारण दूध निकला कि वेतन का म कर रहे थे तो इसमे महावीर का अनावरणत्व लुप्त हो गया । पुराण की दृष्टि महावीर के ममं पर है, तथ्य पर नहीं | तथ्य मे जाने पर यह भी जरूरी नही कि किसी सर्प ने उन्हें काटा ही हो। यह भी जरूरी नहीं कि उनके चरणो से दूध निकला ही हो । जरी केवल इतना है कि महावीर का ह्रदर करुणा से ओतप्रोत था, स्नेह से लबालब भरा था, उसने प्रेम की अमृतधारा प्रवाहित होती थी— चरणो तक से मानो दूध निकलता था । यह न कहकर कि महावीर हिंसा का प्रत्युत्तर स्नेह में, विप का प्रत्युत्तर दूध से देते थे, पूराण ने ने ही कविता मे कहा कि नर्प ने काटा महावीर को तो दूध ही निकला उनके चरणों मे । मेरी दृष्टि भी महावीर के अन्तर्जीवन पर उनके महत्त्व पर उनके जीवन की अर्थवत्ता पर है, न कि उनके बहिर्जीवन के तथ्यों पर । अगर मेरी बातचीत से तुममे बेचैनी पैदा हो जाय और यह जानने की उत्सुकता तुम्हें कचोटने लगे कि यह वात मच है या झूठ, तो तुम मुझसे प्रमाण मत पूछना । स्वयं प्रमाण की तलाश मे निकल जाना । अगर बात झूठी भी हुई तो तुम वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ पहुँचना चाहिए | और यदि बात सही हुई तो लक्ष्य की प्राप्ति आप ही हो गई। जिन दिन तुम वहाँ पहुँच जाओगे उस दिन जरूरी नही कि तुम लौटकर मुझमे यह कहने आओ । मैंने कहा है कि मेरी दृष्टि शास्त्रीय नहीं है । मै शास्त्रों की निंदा नही करता, क्योकि उन्हें मैं निंदा योग्य भी नहीं मानता। निंदा हम उसकी करते है जिसने कुछ मिलने की सम्भावना थी और वह चीज न मिली । शास्त्र से मिल ही नही सकती । शास्त्र की निंदा का कोई अर्थ नहीं, क्योकि शास्त्र से न मिलना शास्त्र का स्वभाव है । नात्र का स्वभाव है कि उससे सत्य नही मिल सकता । मिल जाय तो आश्चर्य हो जायगा, असम्भव घटना हो जायगी । शास्त्र का रास्ता प्रज्ञा को नही जाता, पाडित्य को जाता है, और पाडित्य प्रज्ञा से बिलकुल उल्टी चीज है । पाडित्य है उवार और प्रज्ञा है निजी । मेरे शब्दों को मानकर जो शास्त्र निर्मित होगे उनका स्वभाव भी ऐसा ही होगा । शास्त्रो का यही स्वभाव है | चाहे वे शास्त्र महावीर के हो, चाहे बुद्ध के, चाहे कृष्ण के, चाहे मेरे, चाहे तुम्हारे | इससे कोई फर्क नही पडता । हाँ, अगर किसी को सत्य दिखाई पड जाय पहले तो वह बाद मे शास्त्र मे भी दिखाई पड़ सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि शास्त्र किसी को दिखला

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