Book Title: Mahapragna Darshan Author(s): Dayanand Bhargav Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ (vi) व्यवहार खण्ड समाज - (५६-६७) सामाजिक दृष्टि का उद्देश्य-व्यक्ति और समाज – मनःस्थिति और परिस्थिति - न्यायव्यवस्थाव्यक्तिवादी दृष्टिकोण-व्यक्ति और समाज की सापेक्षता-अध्यात्म और समाज-विधायक मूल्य-शिक्षा और समाज-समाज के बिना व्यक्ति का विकास असम्भव-अध्यात्म का कार्य शिक्षा-समाज व्यवस्था : जैनपरम्परा के परिप्रेक्ष्य में-पूंजीवाद-पूंजीवाद बनाम श्रम-अर्थ का केन्द्र में आना ही अनर्थ की जड़-उपभोक्तृवाद की विकृतियां-लोकतंत्र की समस्यायें-समाजवादसमाजवाद की समीक्षा-वर्णाश्रम व्यवस्था-सिद्धान्त और व्यवहार का भेद-वर्णाश्रम व्यवस्था का सामाजिक-आर्थिक तंत्र-मुद्रा का प्रचलन और काले धन की समस्या-गृहस्थ आश्रम का महत्त्व-आश्रम व्यवस्था। व्रती समाज-अहिंसा-व्रतों में अतिचार-सत्य अणुव्रत-अचौर्य अणुव्रत-ब्रह्मचर्य अणुव्रत-अपरिग्रह अणुव्रत-भोगोपभोग परिमाण व्रत - श्रम - स्वावलंबन - वैयावृत्य - स्थिरीकरण-- वात्सल्य आवश्यकता नयी व्यवस्था की-केन्द्र है मनुष्य-परिग्रह और सुख की व्याप्ति नहीं है-समाजवाद भी अपरिग्रह नहीं ला पाया-स्वदेशी गरिमा-समाजवाद के साथ अध्यात्म जुड़े-परिग्रह सम्माननीय नहीं है-जन प्रतिनिधियों का दायित्व-स्वार्थ को परमार्थ में बदलें-आज धन केन्द्र में है-विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था और मानवीय संस्पर्श-उपसंहार महाप्रज्ञ उवाच (६८-१०३) संयम -- (१०५-११५) अध्यात्म और काम-ऊर्जा और काम-ध्यान और काम-जप-काम के हेतु-आसक्ति का मर्म-इच्छा परिमाण-निम्नगामी को ऊर्ध्वगामी बनायें-आहार संयम-स्पन्दनों का पक्ष प्रतिपक्ष-इन्द्रियों के पार-योग और तारुण्य महाप्रज्ञ उवाच (११६-१२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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