Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 8
________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन यह तो भिन्न-भिन्न घरों की बात हुई ; किन्तु देखने में तो ऐसा भी आता है कि जहाँ एक ओर एक ही घर में सूर्योदय के समय बड़े ही उत्साह के साथ गीत गाते देखा जाता है; वहीं दूसरी ओर उसी घर में सूर्यास्त के समय हायतोबा मची हुई है - यह भी देखा जाता है । जगत की इसप्रकार की स्थिति देखकर भी यह प्राणी भयभीत नहीं होता। हाय-हाय, हे मूढ़ नर ! तेरी बुद्धि कहाँ चली गई है, तेरी बुद्धि का अपहरण किसने कर लिया है कि इतनी सी बात भी तेरी समझ में नहीं आ रही है। इस अमूल्य मनुष्य जन्म को पाकर तू उसे सोने में ही गमा रहा है। तुझे नहीं मालूम कि तू जिस मनुष्य जीवन को यों ही बर्बाद कर रहा है, वह कितना कीमती है, उसकी एक-एक घड़ी करोड़ों रुपयों की है। करोड़ों की एक-एक घड़ी तू यों ही बर्बाद कर रहा है । इसप्रकार हम देखते हैं कि कविवर भूधरदासजी का न केवल काव्य ही, अपितु उनका जीवन भी अध्यात्म रस और वैराग्यभाव से सराबोर है। __ अध्यात्मप्रमियों में अत्यन्त लोकप्रिय एवं सम्यग्दृष्टियों की परिणति का दिग्दर्शन करने वाला प्रसिद्ध पद 'अब मेरे समकित सावन आयो' भी आपकी ही रचना है ; जिसमें अध्यात्म रस के साथ-साथ श्रावण मास में होने वाली प्रकृति की रमणीय छटा का भी मनोहारी चित्रण है। सांग रूपक के ऐसे सशक्त प्रयोग बहुत कम देखने को मिलते हैं। वह पद मूलतः इसप्रकार है अब मेरे समकित सावन आयो । बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो॥ अब मेरे समकित सावन आयो । टेक ॥ अनुभव-दामिनी दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो। बोले विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो ।। अब मेरे समकित सावन आयो ॥ 1 ॥ गुरु धुनि गरज सुनत सुख उपजे, मोर सुमन विहंसायो। साधक भाव अंकुर उठे बहु, जित तित हरष सवायो । अब मेरे समकित सावन आयो || 2 ||

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