Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 6
________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन लोग बिना शिक्षा के ही सीख रहे हैं । ऐसा होने पर भी उन लोगों की निष्ठुरता की क्या बात करें; जो लोग श्रृंगार रस की काव्य रचना कर उन्हें व्यसनों में फंसने के लिए उत्तेजित करते रहते हैं । मैं राम की कसम खाकर कहता हूँ कि वे लोग उन दीन-हीन लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं; जो कि स्वयं अंधे हैं और जिन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह है कि दीन-हीन अंधे लोग तो दया के पात्र होते हैं, उन्हें तो सन्मार्ग दिखाया जाता है। पर ये दुष्ट लोग उन लोगों की आंखों में भी धूल झोंक रहे हैं, उन्हें गलत रास्ते पर चलने की प्रेरणा दे रहे हैं। इससे अधिक बुरा और क्या कार्य होगा?- यह बात गंभीरता से विचार करने योग्य है। महाकवि भूधरदासजी तो यह चाहते हैं कि रसों उसके बगत के प्राणियों को मोगों से विरक्त कर आत्मकल्याण की प्रेरणा दी जानी चाहिए; जिससे वे विषयों से विरक्त होकर जीवन को सफल और सार्थक बनावें। अरे भाई ! इस जगत में जंजाल बहुत हैं और समय बहुत कम; तथा हम सभी की शक्ति बहुत ही सीमित है; इसलिए समय रहते चेत जाने में ही लाभ है; क्योंकि समय के निकल जाने पर यदि बात ख्याल में भी आ गई तो कछ भी करना संभव न होगा। यह बात कवि हृदय में बहत गहराई से बैठी हुई है। यही कारण है कि कवि करुणा विगलित होकर अपने पाठकों से कहता है कि - जो लों देह तेरी काहू रोग सों न घेरी, जो लो जरा नाहिं नेरी जासौं पराधीन परिहै । जो लों जमनामा बैरी देय न दमामा जो लों, मानै कैना रामा बुद्धि जाय न विगरिहै ॥ तो लौं मित्र मेरे निज कारज संवार ले रे, पौरुष थकेंगे फेर पीछे कहा करिहै। अहो आग लागे जब झोपरी जरन लागै, कुआ के खुदाय तब कौन काज सरिहै ।' 1. जैनशतक, छन्द 26

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