Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ महत्त्व है। द्वादशांग वाणी से इनका सीधा सम्बन्ध है। एक समय था जब हमारे पूर्वज ऐसे महान् ग्रन्थों की लिपि कराकर उनकी रक्षा करते थे किन्तु वर्तमान काल में हम उन्हें स्वल्प निछावर देकर भी अपने यहाँ स्थापित करने में सकुचाते हैं। यह शंका की जाती है कि हम उन्हें समझते नहीं तो बुलाकर भी क्या करेंगे। किन्तु उनकी ऐसी शंका करना निर्मूल है। ऐसा कौन नगर या गाँव है जहाँ के जैन गृहस्थ तात्कालिक उत्सव में कुछ-न-कुछ खर्च न करते हों। जहाँ उनकी यह प्रवृत्ति है वहाँ जैनधर्म के मूल साहित्य की रक्षा करना भी उनका परम कर्तव्य है। कहते हैं कि एक बार धार रियासत के दीवान को वहाँ के जैन बन्धुओं ने जैन मन्दिर के दर्शन करने के लिए बुलाया था। जिस दिन वे आने वाले थे उस दिन मन्दिरजी में विविध उपकरणों से खूब सजावट की गयी थी। जिन उपकरणों की धार में कमी थी वे इन्दौर से बुलाये गये थे। दीवान साहब आये और उन्होंने श्री मन्दिरजी को देखकर यह अभिप्राय व्यक्त किया कि जैनियों के पास पैसा बहुत है। अन्त में उन्हें वहाँ का शास्त्रभण्डार भी दिखलाया गया। शास्त्रभण्डार को देखकर दीवान साहब ने पूछा कि ये सब ग्रन्थ किस धर्म के हैं। जैनियों की ओर से यह उत्तर मिलने पर कि ये सब जैनधर्म के ग्रन्थ हैं दीवान साहब ने कहा कि यह जैनधर्म है। इससे स्पष्ट है कि साहित्य ही धर्म की अमूल्य निधि है। महान् से महान् कीमत देकर भी यदि इसकी रक्षा करनी पड़े तो करनी चाहिए। गृहस्थों का यह परम कर्तव्य है। हम यह शिकायत तो करते हैं कि मुसलिम बादशाहों ने हमारे ग्रन्थों को ईंधन बनाकर उनसे पानी गरम किया किन्तु जब हम उनकी रक्षा करने में तत्पर नहीं होते और उन्हें भण्डार में सड़ने देते हैं या उनके प्रकाशित होने पर उन्हें लाकर अपने यहाँ स्थापित नहीं करते तब हमें क्या कहा जाय? क्या हमारी यह प्रवृत्ति उनकी रक्षा करने की कही जा सकती है? स्पष्ट है कि यदि हमारी यही प्रवृत्ति चालू रही तो हम भी अपने को उस दोष से नहीं बचा सकते जिसका आरोप हम मुसलिम बादशाहों पर करते हैं। शास्त्रकारों ने देव और शास्त्र में कुछ भी अन्तर नहीं माना है। अतएव हम गृहस्थों का कर्तव्य है कि जिस तरह हम देव की प्रतिष्ठा में धन व्यय करते हैं उसी प्रकार साहित्य की रक्षा में भी हमें अपने धन का व्यय करने में कोई न्यूनता नहीं करनी चाहिए। आशा है समाज अपने इस कर्तव्य की ओर सावधान होकर पूरा ध्यान देगी। हमने इस भाग में सम्पादन आदि में पूरी सावधानी बरती है फिर भी गार्हस्थिक झंझटों के कारण त्रुटि रह जाना स्वाभाविक है। आशा है स्वाध्यायप्रेमी जहाँ जो कमी दिखाई दे उसकी सूचना हमें देने की कृपा करेंगे ताकि भविष्य में उन दोषों को दूर करने में हमें प्रेरणा मिलती रहे। -फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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