Book Title: Mahabandho Part 3
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ सम्पादकीय (प्रथम संस्करण 1954 से) आज से लगभग सवा वर्ष पूर्व स्थितिबन्ध का पूर्व भाग सम्पादित होकर प्रकाश में आया था। यह उसक शेष भाग है। भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से सब तरह की सुविधाएँ प्राप्त होने पर भी इसके सम्पादन में अपने वैयक्तिक कारणों से हमें पर्याप्त समय लगा है इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। श्रीयुत बन्धु रतनचन्द्र जी मुख्तार व बन्धुवर नेमिचन्द्र जी वकील सहारनपुर ' षट्खण्डागम' और 'कषाय- प्राभृत' के विशेष अभ्यासी हैं। श्री रतनचन्द्र जी ने तो एक तरह से गार्हस्थिक झंझटों से अपने को मुक्त ही कर लिया है और आजीविका को तिलांजलि दे दी है। थोड़े बहुत साधन जो उनके पास बच रहे हैं उन्हीं से वे अपनी आजीविका चलाते हैं। जीवन में सादगी और निष्कपट सरल व्यवहार उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है। इस वर्ष दस लक्षण पर्व के दिनों में हम सहारनपुर आमन्त्रित किये गये थे, इसलिए निकट से हमें उनके जीवन का अध्ययन करने का अवसर मिला है। इस आधार से हम कह सकते हैं कि वे घर में रहते हुए भी साधु जीवन बिता रहे हैं। योगायोग की बात है कि इन्हें पत्नी भी ऐसी मिली हुई है जो इनके धार्मिक कार्यों में पूरी साधक है। यों तो दोनों बन्धु मिलकर इन महान् ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं परन्तु श्री रतनचन्द्र जी का अभ्यास तगड़ा है और इन ग्रन्थों के सम्पादन में उनके परामर्श की आवश्यकता अनुभव में आती है वे यह इच्छा तो रखते हैं कि इन ग्रन्थों के प्रकाशन के पहले हमें उनके स्वाध्याय का अवसर मिल जाय तो उत्तम हो और ऐसा करने में लाभ भी है, पर कई कारणों से इस व्यवस्था के जमाने में कठिनाई जाती है। स्थितिबन्ध का अन्तिम कुछ भाग अवश्य ही उन्होंने देखा है और उनके सुझावों से लाभ भी उठाया गया है। आशा है भविष्य में इस सुविधा के प्राप्त करने में सुधार होगा और उनका आवश्यक सहयोग मिलता रहेगा । 1 श्री रतनचन्द्र जी ने प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्ध के पूर्वभाग का शुद्धि पत्रक तैयार करके हमारे पास भेजा है। उसमें आवश्यक संशोधन करके मुद्रित कर देने में लाभ भी है। किन्तु इधर हमारे मित्र श्रीयुत लाला राजकृष्ण जी देहली के निरन्तर प्रयत्न करने के फलस्वरूप मूडबिद्री से कनडी मूल ताडपत्रीय प्रतियों के फोटो देहली वीरसेवा मन्दिर में आ गये हैं। श्री लाला राजकृष्ण जी ने दौड़-धूप करके यह काम तो बनाया ही है और इसमें उन्हें श्रीयुत बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता वालों का भी पूरा सहयोग मिला है। किन्तु सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि लाला राजकृष्ण जी की पत्नी का इन ग्रन्थों के उद्धार कार्य में विशेष हाथ रहा है। वे स्वयं इन महानुभावों के साथ मूडबिद्री गयीं और हर तरह की कमी की पूर्ति में साधक बनीं तभी यह काम हो सका है। अतएव इस भाग के साथ हमने पूर्व भागों का शुद्धिपत्रक नहीं जोड़ा है, क्योंकि इन ग्रन्थों के उत्तर भारत में सुलभ हो जाने से हमारा विचार है कि एक बार प्रकाशित और अप्रकाशित भाग का शान्ति से इन मूल ग्रन्थों के साथ मिलान कर लिया जाय और तब जाकर प्रकाशित भागों में जो कमी रह गयी हो उसे प्रकाश में लाया जाय। हमें विश्वास है कि हमारे साथी हमारे इन विचारों का समर्थन करेंगे। हमें भारतीय ज्ञानपीठ के सुयोग्य मन्त्री श्रीयुत अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय ने जितनी तत्परता से यह कार्य करने के लिए सौंपा था उतनी तत्परता हम इस काम में दिखा नहीं सके। आशा है वे हमारी इस कमजोरी की ओर विशेष ध्यान नहीं देंगे और जिस तरह अभी तक सहयोग देते आये हैं देते रहेंगे । अन्त में हमें समाज से इतना ही निवेदन करना है कि दिगम्बर परम्परा में इन महान् ग्रन्थों का बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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