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३७. अचिन्त्य घटना घटी
सूर्यास्त हो चुका था।
रात्रि आगे बढ़ रही थी। अंधकार धीरे-धीरे छा रहा था । दो घटिका रात बीत गई। योगी अपने कुटीर पर आ पहुंचा। उसने वन-प्रदेश से लाये वनस्पतिद्रव्य एक ओर रखे और वह तत्काल सर्परूपी महाबल के पास पहुंचा।
सर्परूपी महाबल बोलने में असमर्थ था। परन्तु वह असह्य वेदना भोग रहा था। उसको एक बात का संतोष हो चुका था कि उसकी प्रियतमा जीवित है और वह मेरे माता-पिता के पास है । दूसरा संतोष इस बात का था कि लक्ष्मीपुंज हार मिल जाने के कारण माता-पिता का आत्म-दाह रुक गया और महान् अनर्थ टल गया। किन्तु यदि मैं उनसे न मिला तो वे पुनः प्राण-विर्सजन का प्रयत्न करेंगे। परन्तु बुद्धिमती मलया वहीं है। वह स्थिति को संभाल लेगी। संभव है उसने अपना मूल परिचय भी न दिया हो । मेरे बिना वह अपना परिचय कैसे देगी? कौन विश्वास करेगा? संभव है वह मेरी राह देख रही होगी। यदि मैं प्रातःकाल तक वहां नहीं पहुंचा तो विपत्ति आ सकती है। पिताश्री निराश होकर मौत को आमन्त्रित भी कर सकते हैं। ___इस प्रकार अनेक विचारों के वर्तुल में महाबल फंस गया था। एक ओर हर्ष का अनुभव हो रहा था तो दूसरी ओर विपत्ति की घनघोर घटा मंडरातीसी दीख रही थी। इसमें भी सबसे बड़ी विपत्ति तो यह हो सकती है कि यदि योगी न आए तो मुझे इसी सर्प योनि में अपना पूरा जीवन बिताना पड़े । कैसे होगा यह ? अब मैं कभी इस प्रकार की भूल नहीं करूंगा।।
इस प्रकार संकल्प-विकल्पों में उन्मज्जन-निमज्जन करता हुआ महाबलरूपी सर्प नमस्कार महामंत्र का स्मरण करने लगा और उसमें तल्लीन हो गया। ___और कुछ ही क्षणों के पश्चात् योगी आ पहुंचा। उसने महाबल रूपी सर्प के फन को पंपोलते हुए कहा--'युवराज ! आपने मेरे लिए बहुत कुछ सहा है.' परमात्मा आपका अवश्य कल्याण करेगा।' ऐसा कहकर योगी ने आकड़े के दूध में कुछ द्रव्य मिलाए और उससे सर्प
महाबल मलयासुन्दरी १६३
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