Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 318
________________ तक चूमती रही। इसी समय महाप्रतिहार ने आकर यह सूचना दी-'नगर की दक्षिण दिशा में स्थित सुमंगल उद्यान में केवली चंद्रयशा पधारे हैं।' केवली भगवंत ! पूरा राजपरिवार सुमंगल उद्यान की ओर चल पड़ा। नगर के अन्यान्य व्यक्ति भी उसी दिशा की ओर चल पड़े । केवली भगवान् के दर्शन कर सभी आनंदित हुए। केवली भगवान् ने धर्मदेशना दी और भवबंधन-मुक्ति पर प्रकाश डाला। सारी जनता ने मंत्रमुग्ध होकर केवली भगवान् की वाणी का आस्वाद लिया। .. धर्मदेशना संपन्न हुई। परिषद् अपने-अपने गन्तव्य की ओर चली गई। राजपरिवार वहीं रुका रहा । जनता के विसर्जित हो जाने के बाद मलया ने पूछा-'भगवंत ! मैंने कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचायी, फिर भी मेरे पर विपत्तियों के पर्वत टूट पड़े, ऐसा क्यों?' केवली भगवान ने कहा- भद्रे ! इस भव में बांधे हुए कर्म इसी भव में भोगने पड़ते हैं, ऐसी व्यवस्था नहीं है। विगत भवों के कर्म जिस भव में, जब उदय में आते हैं तब उन्हें भोगना पड़ता है। भद्रे ! शील के प्रति तेरी आस्था रही और नवकार मंत्र का जाप तू करती रही। ये दोनों तेरे लिए कवच बने हुए थे। किन्तु पूर्वभव के कर्मों का परिणाम तो तुझे भोगना ही पड़ा। वे कर्म दूरस्थ जन्मों के नहीं, इससे पूर्वजन्म के ही थे।' महाराज वीरधवल ने आश्चर्य के साथ पूछा.---'भगवन् ! आप स्पष्ट करें।' केवली भगवान् उनके पूर्वभव की बात बतलाते हुए बोले- 'भद्रजनो ! पृथ्वीस्थानपुर में प्रियमित्र नाम का एक धनाढ्य गृहपति रहता था। उसके तीन पत्नियां थीं-रुद्रा, भद्रा और प्रीतिमती। किन्तु प्रियमित्र का अनुराग प्रीतिमती से अधिक था । वह रुद्रा और भद्रा की उपेक्षा करने लगा। प्रियमित्र का एक मित्र मदनचंद कभी-कभी उसके घर आता था। वह प्रीतिमती के प्रति आसक्त हो गया। प्रीतिमती पतिव्रता थी । वह विचलित नहीं हुई। प्रियमित्र को अपने मित्र का दुष्टभाव ज्ञात हुआ। दोनों में संघर्ष हुआ और मदनचंद नगर छोड़कर अन्यत्र चला गया। रास्ते में दो दिन तक उसे खाने को कुछ भी नहीं मिला 'वह आकुल-व्याकुल हो गया 'इतने में ही उसने एक ग्वाले को गाएं चराते देखा वह उसके पास गया और खाने के लिए कुछ याचना की । दया होकर ग्वाले ने एक गाय दुहकर दूध दिया। गाय का दूध पाकर मदन अत्यन्त प्रसन्न हुआ'''उसके मन में एक विचार उभरा--यदि इस वक्त कोई अतिथि आ महाबल मलयासुन्दरी ३०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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