Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ कर्म बांधे थे। कंदर्प पूर्वभव में तेरे प्रति आसक्त था। वह मोह का बंधन इस भव में भी नहीं छूटा और तुझे दुःख देने में उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा ।' केवली भगवान् ने शान्त भाव से कहा। मलया ने पूछा-'भगवन् ! जिस मुनि का मैंने अपमान किया था, उनका क्या हुआ? 'भद्रे ! तेरा यह दूसरा भव है । मेरा वही भव है । मैं ही हूं वह मुनि।' उस समय सभी ने केवली भगवान् को वंदना की। , , मलयासुन्दरी ने कहा--'भगवन् ! मेरे मन में और दो प्रश्न घुल रहे हैं।' 'भद्रे ! तेरे प्रश्न को मैं जान गया हूं। बलसार ने तेरे रूप पर मुग्ध होकर तुझे अनेक कष्ट दिए । उसने अपनी दुष्ट प्रवृत्ति से चिकने और भारी कर्मों का अर्जन किया है और जिस मगरमच्छ ने तुझे किनारे पर ला पटका था, वह तेरी धायमाता का जीव था। तेरे प्रति उसका ममत्व भाव था। उसी ममत्व भाव से प्रेरित होकर उसने तुझे बचाया था।' महाबल ने पूछा-'भगवन् ! कनकावती अभी कहां है ? उसका वैरभाव तृप्त हो गया या नहीं ?' 'राजन् ! कनकावती का वैर अभी तक तप्त नहीं हुआ है। 'अभी वह एक बार और तुझ से बदला लेने का प्रयास करेगी.''उसे अभी समय लगेगा।' मलया बोली--'भगवन् ! भवबंधन के जाल से मुक्त होने का क्या कोई दूसरा उपाय नहीं है ? ___'भद्रे ! जो सर्वत्याग के मार्ग पर चलने का निश्चय करता है, वह भवबंधन से मुक्त हो जाता है।"उसे आत्म-साक्षात्कार होता है और जन्म-मरण पर विजय प्राप्त होती है।' महाबल मलयासुन्दरी ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322